• मुंबई का इंसाफ

    12 मार्च 1993 को मुंबई एक के बाद एक 12 बम धमाकों से दहल गई थी। इन विस्फोटों में 257 लोगों की मौत तो हुई ही, देश की सांप्रदायिक सूरत भी बुरी तरह बिगड़ गई। कुछ घटनाएं जिनसे हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब को गहरे जख्म मिले, मुंबई के धमाके उनमें से एक हैं। जैसा कि हर आतंकी हमले के बाद होता है,...

    12 मार्च 1993 को मुंबई एक के बाद एक 12 बम धमाकों से दहल गई थी। इन विस्फोटों में 257 लोगों की मौत तो हुई ही, देश की सांप्रदायिक सूरत भी बुरी तरह बिगड़ गई। कुछ घटनाएं जिनसे हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब को गहरे जख्म मिले, मुंबई के धमाके उनमें से एक हैं। जैसा कि हर आतंकी हमले के बाद होता है, इस हमले में भी कुछ लोग पकड़े गए, कुछ फरार हुए, पुलिस ने मामला दर्ज किया, जांच एजेंसियों ने कार्रवाई प्रारंभ की और अदालत में सुनवाई चलती रही। इन हमलों के पीछे अंडरवल्र्ड के डान कुख्यात दाऊद इब्राहिम का हाथ मुख्य रूप से था, टाइगर मेमन भी उसके साथ था। ये दोनों शख्स पुलिस की पहुंच से बाहर हैं, बल्कि देश से ही बाहर हैं और इतने सालों में तमाम दावों के बावजूद उन्हें वापस नहींलाया जा सका। हालांकि जब-जब आम चुनाव हुए, आतंकवाद से सख्ती एक प्रमुख मुद्दा रहा और दाऊद इब्राहिम को देश वापस ले आने का दावा हर सरकार ने किया। खबरों में यह जिक्र बार-बार आता है कि दाऊद इब्राहिम बहुत दूर नहीं, पड़ोस में पाकिस्तान में ही है। लेकिन पाकिस्तान की सरकार से यह कुबूल करवाना कि दाऊद को वहां शरण मिली है और वे उसे भारत को सौंपने में सहयोग करेंगे, लगभग असंभव है। पाकिस्तान की सरकार आईएसआई और सेना के इशारों पर चलती है और मुंबई हमलों की गहन छानबीन में यह तथ्य सामने आया है कि इसमें पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी का सहयोग दोषियों को प्राप्त था। दुबई में इन हमलों की साजिश रची गई और उसके बाद 15 लोगों को प्रशिक्षण के लिए पाकिस्तान ले जाया गया था। वहां से उन्हें दुबई दोबारा भेजकर फिर भारत रवाना किया गया। इतना बड़ा षड्यंत्र शीर्ष पर बैठे लोगों की मदद के बिना पूरा नहींहो सकता। बहरहाल, दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेमन को भारतीय जांच एजेंसियां और पुलिस नहींतलाश कर पाई, लेकिन टाइगर मेमन के भाई याकूब मेमन को गिरफ्तार करने में उन्हें सफलता मिली। याकूब ने इन हमलों के लिए हथियार तो नहींउठाए, लेकिन इस साजिश को अंजाम देने के लिए धन की व्यवस्था और लेन-देन सबकी जिम्मेदारी उठाई। 22 साल बाद अब उसे फांसी के तख्त पर लटकाने का फैसला आ गया है। याकूब के साथ 10 अन्य लोगों को भी अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी, लेकिन उनकी सजा उम्रकैद में बदल दी गई थी। याकूब की फांसी बरकरार रही, उसकी दया याचिका को अप्रैल 2014 में राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया था, और बीते मंगलवार उसकी आखिरी याचिका भी सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दी। अब यह माना जा रहा है कि 30 जुलाई को उसे फांसी दे दी जाएगी। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के जनवरी 2014 में दिए गए फैसले के मुताबिक याचिका खारिज होने और फांसी की तारीख के बीच 14 दिन का अंतराल होना चाहिए, ताकि सजायाफ्ता के परिजनों को समय रहते सूचित करने और आखिरी बार मुजरिम से मिलने का मौका मिल सके, इस लिहाज से याकूब मेमन की फांसी की तारीख कुछ आगे बढ़ सकती है क्योंकि उसे मात्र 9 दिनों का ही वक्त मिला। याकूब मेमन की सजा का फैसला आते ही उस पर राजनीति प्रारंभ हो गई है और इस बात पर बहस भी कि क्या मृत्युदंड जारी रखना चाहिए। अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी के वक्त भी ऐसी ही बहसें प्रारंभ हुई थीं, जो अंतत: बेनतीजा साबित हुई। ये मामले देश की सुरक्षा और आतंकवाद जैसे मुद्दों के कारण गंभीर हैं ही, जब इसमें धर्म का कोण जुड़ जाता है तो उसकी गंभीरता और बढ़ जाती है। पहले यूपीए सरकार पर और अब एनडीए सरकार पर यह आरोप लग रहा है कि चुनाव में फायदे और तुष्टिकरण के लिए ऐसे फैसले लिए गए। इन आरोपों का तार्किक खंडन करने का काम सरकार का है, लेकिन उससे भी जरूरी इस बात पर ध्यान देना है कि आखिर कौन सी ऐसी वजहें हैं जिनके कारण ऐसे आरोप लगाने का मौका मिला। क्यों सरकार के फैसले और उसकी नीयत पर शक करने का अïवसर मिला? कुछ लोगों को उम्रकैद देने, फांसी देने या शक के आधार पर जेलों में बंद करने के बाद भी आतंकवाद का खतरा कम होने की जगह बढ़ क्यों रहा है? हमारे नौजवान अगर पथभ्रष्ट हो रहे हैं, तो इसकी जिम्मेदारी क्या केवल उनके परिवार और समाज की है या सरकार की नीतियों में भी कहीं कोई खामी रह गई है? फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यही है कि याकूब को फांसी देने से क्या मुंबई के पीडि़तों को इंसाफ मिलेगा? क्या प्रभाकरण, वीरप्पन, ओसामा बिन लादेन की तरह दाऊद हमेशा के लिए पहुंच से बाहर लगेगा और एक दिन अचानक उसकी मौत या गिरफ्तारी या मुठभेड़ की खबर मिलेगी या फिर उसके बारे में कभी कुछ पता ही नहींचलेगा?

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