• ग्रीस का सबक

    आर्थिक विकास की मृग मरीचिका, भ्रष्टाचार और अविचारित विलासिता के दुष्परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं, इसे ग्रीस की वर्तमान दशा से समझा जा सकता है। लोग दिवालिया होते हैं, उद्योग ठप्प पड़ जाते हैं, बैंक बंद हो जाते हैं, लेकिन कोई देश इन स्थितियों में घिर जाए, यह सुनना अजीब लगता है। ग्रीस इस वक्त लगभग दिवालिया स्थिति में पहुंच चुका है।...

    आर्थिक विकास की मृग मरीचिका, भ्रष्टाचार और अविचारित विलासिता के दुष्परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं, इसे ग्रीस की वर्तमान दशा से समझा जा सकता है। लोग दिवालिया होते हैं, उद्योग ठप्प पड़ जाते हैं, बैंक बंद हो जाते हैं, लेकिन कोई देश इन स्थितियों में घिर जाए, यह सुनना अजीब लगता है। ग्रीस इस वक्त लगभग दिवालिया स्थिति में पहुंच चुका है। वहां के सभी बैंक कुछ दिनों के लिए बंद हैं और लोगों को एटीएम से सीमित राशि निकालने की ही इजाजत है। उद्योग-धंधे ठप्प पड़े हैं, बेरोजगारी बढ़ गई है। सरकार कर्जदाताओं के आगे लाचार है और जनता असहाय महसूस कर रही है। यह सब एक दिन में अचानक नहींहुआ। पिछले कई सालों से इस दिवालियेपन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। बार-बार चेतावनी के संकेत भी मिल रहे थे। लेकिन ग्रीस सरकार और प्रशासन ने आगामी संकट की अनदेखी कर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर डाले रखा कि संकट दिखे ही नहीं। अब जब अर्थव्यवस्था और उसके कारण संपूर्ण आंतरिक व्यवस्था चरमरा गई है तो वर्तमान वामपंथी सरकार पर सारा दोष मढ़ा जा रहा है। यूरोपीय संघ में शामिल होने के बाद ग्रीस ने यूरो को ही मुद्रा रूप में अपनाया, बगैर यह विचार किए कि अपनी मुद्रा बनाए रखने के क्या फायदे हैं और क्या ऐसे फायदे वह यूरो को अपनाकर उठा पाएगा। मसलन, अपनी मुद्रा का अधिकार जब देश के पास रहता है तो जरूरत पडऩे पर रोजगार सृजित करने, निर्यात बढ़ाने आदि के लिए वह उसका मूल्य अपनी शर्तों पर निर्धारित कर सकता है। बाजार में स्थिरता लाने के लिए मुद्रा की आपूर्ति कितनी हो यह तय कर सकता है। यूरो के साथ यह छूट ग्रीस नहींले पाया। जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। बेशक यूरो मजबूत मुद्रा है, लेकिन उसकी यह मजबूती फ्रांस, जर्मनी जैसी मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों के कारण है। यूरोप की कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देशों में, जिन्होंने भी यूरो को अपनाया है, वे उसकी मजबूती का लाभ अपने लिए नहींले पाते हैं। ग्रीस में विगत सात सालों से अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो रही थी। स्थिति संभालने के लिए तत्कालीन सरकार ने यूरोपीय आयोग, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और आईएमएफ के राहत पैकेज को कुछ शर्तों के साथ स्वीकार किया। इन शर्तों को पूरा करने के लिए सरकारी खर्च में तेजी से कटौती की गई, जिसके कारण रोजगार खत्म हुए, जनसुविधाएं कम हो गईं और लोगों में असंतोष पनपा सो अलग। आर्थिक स्थिति खराब रहने के कारण न निवेश में बढ़ोत्तरी हुई, न सकल घरेलू आय में। कर्ज का बोझ और आय का अता-पता नहीं, बावजूद इसके ग्रीस में ओलंपिक खेलों के आयोजन की विलासिता की गई। 2004 में इसकी मेजबानी हासिल करने के लिए सरकारी कागजों में अर्थव्यवस्था को मजबूत दिखाया गया। भ्रष्टाचार पर रोक नहींलगी। इन सबका नतीजा अब ग्रीस को भुगतना पड़ रहा है और आने वाली पीढिय़ों के सामने न केवल जीवनयापन बल्कि सम्मान और गरिमा के साथ रहने पर भी प्रश्नचिह्नï लग गया है। आईएमएफ द्वारा दिए गए कर्ज की किश्त न चुका पाने के कारण ग्रीस के सामने दिवालिया होने का संकट लहरा रहा है। अब वहां की सरकार जनमत संग्रह से तय करना चाहती है कि वह यूरोजोन में बनी रहे या नहीं। लोगों से राय लेना अच्छी बात है, लेकिन यह बात ग्रीस और विश्व के अन्य लोकतांत्रिक देशों की सरकारों को समझ लेना चाहिए कि जब वे मनमानी भरे निर्णय लेते हैं तो उसका असर किस तरह जनता पर पड़ता है और आखिर में देश को संभालने के लिए जनता को ही आगे आना पड़ता है। मुमकिन है ग्रीस को यूरोपीय देशों की सहायता मिल जाए, मुमकिन यह भी है कि वह यूरोजोन से बाहर रहकर अपनी मुद्रा अपनाए, वर्तमान संकट से बाहर निकलने के लिए वह किसी न किसी तरह हाथ-पैर तो मारेगा ही। ग्रीस के संकट का असर यूरोजोन वाले देशों पर प्रभाव डाल सकता है, भारत इस चिंता से फिलहाल मुक्त है, क्योंकि यूरोप में उसका व्यापार जर्मनी, फ्रांस से अधिक है। लेकिन एक देश का आर्थिक संकट दावानल की तरह बाकी विश्व को किस तरह लपेट लेता है, यह कुछ सालों पहले दुनिया देख चुकी है। बेहतर हो भारत की सरकार भी ग्रीस से सबक लेते हुए बड़ी बातें, बड़ी घोषणाएं, बड़े दावे और बड़े दिखावे करने से बचे और उतने ही पैर पसारे जितनी चादर है।

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