• क्या जर्मनी भारत के साथ सैन्य सहयोग कर पाएगा?

    (अनिल जनविजय) मॉस्को! जर्मनी भारत के साथ दुपक्षीय सैन्य-सहयोग का विकास करना चाहता है। मंगलवार को शुरू हुई अपनी तीन दिवसीय भारत यात्रा के दौरान जर्मनी की रक्षामन्त्री उर्सूला वोन देर लेयेन भारत के रक्षामन्त्री मनोहर पर्रीकर और भारत के अन्य उच्चाधिकारियों से मिलीं। बर्लिन की मुख्य दिलचस्पी भारत की पनडुब्बी निर्माण योजनाओं में है क्योंकि जर्मनी की समुद्री पोत निर्माण कम्पनी थैसनक्रुप मैरीन सिस्टम ग़ैरपरमाणविक पनडुब्बी निर्माण के क्षेत्र में दुनिया की एक जानी-मानी कम्पनी है। हथियारों का निर्माण करने वाले विदेशी उत्पादक भारत में जो दिलचस्पी दिखा रहे हैं, वह उचित ही है। ...

    (अनिल जनविजय) मॉस्को! जर्मनी भारत के साथ दुपक्षीय सैन्य-सहयोग का विकास करना चाहता है। मंगलवार को शुरू हुई अपनी तीन दिवसीय भारत यात्रा के दौरान जर्मनी की रक्षामन्त्री उर्सूला वोन देर लेयेन भारत के रक्षामन्त्री मनोहर पर्रीकर और भारत के अन्य उच्चाधिकारियों से मिलीं। बर्लिन की मुख्य दिलचस्पी भारत की पनडुब्बी निर्माण योजनाओं में है क्योंकि जर्मनी की समुद्री पोत निर्माण कम्पनी थैसनक्रुप मैरीन सिस्टम ग़ैरपरमाणविक पनडुब्बी निर्माण के क्षेत्र में दुनिया की एक जानी-मानी कम्पनी है। हथियारों का निर्माण करने वाले विदेशी उत्पादक भारत में जो दिलचस्पी दिखा रहे हैं, वह उचित ही है। आज दुनिया भर में उत्पादित सभी हथियारों के 15 प्रतिशत हिस्से की ख़रीद अकेला भारत ही कर लेता है। सऊदी अरब के बाद भारत ही दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश हैं और भारत जर्मनी से एक प्रतिशत भी हथियार नहीं ख़रीदता है। हालांकि दोनों देशों के बीच रणनीतिक सहयोग सम्बन्धों की स्थापना सन् 2001 में ही हो गई थी। जर्मनी पहले भी इस असन्तुलन को दूर करने की कोशिश कर चुका है। ख़ासकर तब जब फ़्रांस से 126 राफ़ेल लड़ाकू विमान ख़रीदने का भारतीय-फ़्राँसिसी सौदा खटाई में पड़ गया था तो बर्लिन ने नई दिल्ली के सामने अपने लड़ाकू विमान ’यूरोफ़ाइटर’ को बेचने का प्रस्ताव रखा था। अब जर्मनी की रक्षामन्त्री उर्सूला वोन देर लेयेन की भारत-यात्रा के दौरान जर्मनी की आयुध कम्पनियाँ अपनी अग्रिम सैन्य तक्नोलौजी की तरफ़ भारत को आकर्षित करने की कोशिश कर रही हैं तथा भारत के ’मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम में घुसने की सम्भावना ढूंढ रही हैं। हालांकि जर्मनी अपनी अग्रिम तक्नोलौजियों को दूसरे देशों को सौंपने के सवाल को थोड़ा सन्देह की निगाह से देखता है। बहुत सी आधुनिक सैन्य तक्नोलौजियां भारत के पास सिर्फ़ इसलिए नहीं हैं क्योंकि या तो वे बहुत महंगी हैं या भारत का औद्योगिक आधार ही इतना मजबूत नहीं है कि वह इन तक्नोलौजियों का इस्तेमाल कर सके। ’डच वेले’ रेडियो को इण्टरव्यू देते हुए कार्नेगी कोष के दक्षिणी एशियाई कार्यक्रमों के निदेशक फ़्रेडरिक ग्रेयर ने कहा -- उत्पादन के लचीले तरीके अपनाने की जगह नए उत्पादों का एकदम शुरू से भारत में उत्पादन करने की कोशिश अक्सर विकास की प्रक्रिया को धीमा कर देती है, यहाँ तक कि वह उस विकास को पूरी तरह से रोक देती है। जैसे भारत के सामने यूरोफ़ाइटर की ख़रीद का प्रस्ताव रखते हुए जर्मनी का कहना था कि वह बने-बनाए रेडीमेड लड़ाकू विमान भारत को बेच देगा। लेकिन भारतीय विशेषज्ञों के अनुसार रेडिमेड विमान ख़रीद लेना भी आसान नहीं है। यह ठीक है कि जर्मनी की तक्नोलौजी उच्चतम क़िस्म की है, लेकिन इन आधुनिकतम विमानों को ख़रीदने के बाद उत्पादक को उसकी सर्विसिंग और मरम्मत की तथा आगे उसके आधुनिकीकरण की गारण्टी भी तो देनी चाहिए। हथियार ख़रीदने वाला कोई भी देश उत्पादक देश से इन सब सुविधाओं की भी मांग करेगा। लेकिन जैसाकि अन्तरराष्ट्रीय सैन्य अनुबन्धों का अनुभव दिखाता है हथियारों के उत्पादक देश अपनी राष्ट्रीय नीतियाँ और आर्थिक नीतियाँ तय करने में पूरी तरह से स्वतन्त्र नहीं होते। जैसे अमरीका के दबाव पर फ़्राँस ने रूस के लिए रूस के धन से बनाए गए दो हैलिकॉप्टरवाहक युद्धपोत रूस को देने से मना कर दिया और इसकी वजह से फ़्रांस को न सिर्फ़ आर्थिक नुक़सान उठाना पड़ रहा है, बल्कि हथियारों के बाज़ार में उसकी भारी बदनामी भी हो रही है। जर्मनी भी फ़्राँस की तरह ही अपनी नीतियाँ निर्धारित करते हुए अमरीका पर निर्भर करता है। इसलिए जर्मनी के साथ सैन्य-सहयोग शुरू करने से पहले भारत को इस तरह के बहुत से मुश्किल सवालों को भी हल करना पड़ेगा। -- स्पूतनिक संवाद समिति से साभार

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