• 'अन्नदाता' के पेट पर लात कब तक?

    नई दिल्ली ! एक प्रचलित कहावत है कि 'किसी के पेट पर लात मत मारो भले ही उसकी पीठ पर लात मार दो।Ó मगर इस देश में आज से नहीं, सदियों से, गुलामी से लेकर आजादी तक, पाषाण युग से लेकर आज वैज्ञानिक युग तक, बस एक ही काम हो रहा है और वह काम यह है कि हम अपने अन्नदाता, अपने पालनहार, किसान के पेट पर लात मारते ही चले जा रहे हैं।...

    किसान की जमीन,किसान की खेती और दाम तय करती है सरकारठहर मौसम,हर समय बस फसल की चिंता करता है किसाननई दिल्ली !   एक प्रचलित कहावत है कि 'किसी के पेट पर लात मत मारो भले ही उसकी पीठ पर लात मार दो।Ó मगर इस देश में आज से नहीं, सदियों से, गुलामी से लेकर आजादी तक, पाषाण युग से लेकर आज वैज्ञानिक युग तक, बस एक ही काम हो रहा है और वह काम यह है कि हम अपने अन्नदाता, अपने पालनहार, किसान के पेट पर लात मारते ही चले जा रहे हैं।  आखिर इस अन्नदाता का दोष क्या है? यही न कि वह अपने हाथ से इस देश की 100 करोड़ आबादी को निवाला खिला रहा है। जिस पालनहार की पूजा होनी चाहिए, इबादत होनी चाहिए, उसका स्वागत सम्मान होना चाहिए, उस किसान के पेट पर लात मारी जा रही है। आखिर कब तक चलेगा यह दौर? और क्यों चलेगा? सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी पेट पर लात खाने वाला यह किसान यदि जग गया, यदि कहीं संगठित हो गया तो परिणाम क्या होगा? क्या कभी सोचा है किसी ने? नहीं सोचा है तो अब सोच लो, अभी भी समय है, अपने अन्नदाता के सब्र का बांध टूटा नहीं है, यदि सब्र का बांध टूट गया, तो निश्चित ही प्रलय होगी। इसके अलावा और कोई दृश्य दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है। जिस जमीन पर किसान खेती कर रहा है, उसका लगान सरकार तय करती है।

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