• इस दुख की अंतहीन कहानी

    सरगुजा जिले के मैनपाट के मांंझी आदिवासियों की दशा पर करीब 12 साल पहले देशबन्धु ने एक रिपोर्ट छापी थी, जिसमें यह बताने की कोशिश की गई थी कि किस तरह यहां के मूल निवासी मांझी आदिवासी सब कुछ होते हुए आजीविका के साधनों से वंचित हो गए या कर दिए गए। इसी आदिवासी मांझी परिवार में 4 साल के एक बच्चे की भूख से मौत का मामला इन दिनों सुर्खियों में है।...

    सरगुजा जिले के मैनपाट के मांंझी आदिवासियों की दशा पर करीब 12 साल पहले देशबन्धु ने एक रिपोर्ट छापी थी, जिसमें यह बताने की कोशिश की गई थी कि किस तरह यहां के मूल निवासी  मांझी आदिवासी सब कुछ होते हुए आजीविका के साधनों से वंचित हो गए या कर दिए गए। इसी आदिवासी मांझी परिवार में 4 साल के एक बच्चे की भूख से मौत का मामला इन दिनों सुर्खियों में है। सरकार ने घटना की जांच के आदेश दिए हैं और विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार को घेरने का कोई मौका छोडऩा नहीं चाह रही है। ये अलग बात है कि जिस बच्चे की मौत हुई उसका पिता मानसिक रुप से स्वस्थ था या नहीं। बच्चे के शव की पोस्टमार्टम रिपोर्ट से साफ है कि 4 साल का यह बच्चा दो-तीन दिनों से कुछ खाया नहीं था। उसके पेट में भोजन का पचा या अनपचा, कोई अंश नहीं मिला। इससे साफ है कि बच्चे की मौत भूख से ही हुई है। बच्चे की मौत के कारणों से जुड़ी अन्य बातें तो जांच में सामने आएंगी, लेकिन यहां समाज और सरकार की संवेदनशीलता पर सवाल उठते हैं। जिस बच्चे की मौत हुई है, उसकी मां की तीन साल पहले मौत हो गई थी। पिता पर तीन बच्चों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी थी। उसके पास राशन कार्ड भी था, लेकिन जून 2014 के बाद उसका नाम बेवसाइट पर उपलब्ध उपभोक्ताओं की सूची से गायब हो गया है और तभी से उसे राशन नहीं मिल रहा था। गांवों में राशन वितरण व्यवस्था पर नजर रखने वाली पूरी पंचायत ने उसकी कोई मदद नहीं की और न ही समाज से कोई उसका दुख-दर्द पूछने आया। अब भूख से एक बच्चे की मौत की दर्दनाक घटना को भी यह बताने की कोशिश होगी कि उसके लिए व्यवस्था दोषी नहीं है बल्कि बच्चे के पिता के मानसिक रुप से अस्वस्थ होने के कारण उसकी मौत हुई। गुरुवार की सुबह बच्चे की लाश जंगल में मिली थी और जैसी की खबर आई है सीतापुर 4 से 9 साल के तीन बच्चे पैदल जंगल के रास्ते घर लौटने के दौरान पिता से बिछडक़र भटक गए और सबेरे एक बच्चे की लाश और उसके पास बैठे एक अन्य बच्चे को लोगों ने देखा और पुलिस को सूचना दी। जंगल के रास्ते सीतापुर से नर्मदापुर खालपारा की दूरी करीब 25 किलोमीटर है। तीन छोटे-छोटे बच्चों को जंगल के रास्ते पैदल लेकर आने की मजबूरी समझी जा सकती है जबकि सीतापुर से कई बसें चलती हैं। यह उस आदिवासी मांझी परिवार की कहानी है, जिनके बारे में कहा जाता है कि पूरे मैनपाट में कभी इन्हीं आदिवासियों की बसाहट थी। सारे संसाधन उनके थे। ये संसाधन उनके हाथ से कैसे निकल गए, 12 साल पहले छपी रिपोर्ट इसी की कहानी थी। मैनपाट में तिब्बती शरणार्थी बसाए गए हैं। ये शरणार्थी होकर भी बेहतर जीवन जी रहे हैं क्योंकि उनके लिए दलाईलामा ने जीने के बेहतर साधन मुहैया कराने की कोशिश की। रिपोर्ट का शीर्षक ही यही था-मैनपाट के आदिवासियों को भी चाहिए एक दलाईलामा। भूख से एक बच्चे की मौत तो अभी हुई है, आदिवासियों की दुर्दशा की यह कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। इसे उनके बीच जाकर ही देखा-सुना सकता है। दुर्भाग्य से न तो तब कोई पहुंचा और न ही ऐसा होता हुआ दिखाई दे रहा है।

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