• औलाद गिरवी रखने को मजबूर अन्नदाता

    नई दिल्ली ! भारत में किसान सचमुच बहुत मजबूर है। अब तक तो केवल कर्ज, मौसम की मार, जमीन छिन जाने का भय और आत्महत्याएं सुर्खियों में होते थे। लेकिन मध्य प्रदेश के खरगौन जिले के मोहनपुरा गांव के किसान लाल सिंह ने सूखे से फसल बचाने की खातिर, ट्यूबवेल खुदवाने के लिए अपने तीन मासूमों को, वहीं के एक साहूकार के पास गिरवी रख दिया। ...

    नई दिल्ली  !  भारत में किसान सचमुच बहुत मजबूर है। अब तक तो केवल कर्ज, मौसम की मार, जमीन छिन जाने का भय और आत्महत्याएं सुर्खियों में होते थे। लेकिन मध्य प्रदेश के खरगौन जिले के मोहनपुरा गांव के किसान लाल सिंह ने सूखे से फसल बचाने की खातिर, ट्यूबवेल खुदवाने के लिए अपने तीन मासूमों को, वहीं के एक साहूकार के पास गिरवी रख दिया। इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली घटना है, लेकिन हकीकत है। ट्यूबवेल की जरूरत नहीं पड़ी, बैमौसम बारिश की जबरदस्त मार हुई और लाल सिंह की हिम्मत टूट गई, किस्मत ने धोखा दे दिया। उधर गिरवी रखे तीनों नाबालिगों को साहूकार ने राजस्थान से हर साल भेड़ चराने आने वाले भूरा गड़रिया के पास काम करने भेज दिया। भूरा की प्रताड़ना से तंग दोनों भाई -बेजू (11 वर्ष) और टेसू (13 वर्ष)- रात के अंधेरे में भाग लिए। किसी कदर 47 किमी पैदल चलकर टिमरनी पहुंचे। वहां कुछ भले लोगों की नजर पड़ी, मामला पहुंचा हरदा पुलिस तक और तब खुलासा हुआ कि भूरा के पास दोनों का एक और भाई भी है।पुलिस पहुंची लेकिन स्वाभिमानी बालक मुकेश (14 वर्ष) ने अपनी ओर से, लौटने से मना कर दिया और कहा कि वह सेठ से किए वादे को निभाएगा, पहले पिता का फिर भाइयों का कर्ज चुकाएगा, तब घर आएगा। यकीनन आत्मसम्मान और स्वाभिमान की ऐसी मिसाल हिन्दुस्तान के किसान के खून में ही मिलती है। बात खुली तो कई और खुलासे हुए और किसान बच्चों के गिरवी रखने के मामले राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और दूसरे कई राज्यों से जुड़ने लगे।मालवांचल के ही खण्डवा जिले में घोगल गांव है। 'जल सत्याग्रह' यानी कमर से नीचे तक लगातार पानी में डूबे रहने के लिए देश में एक पहचान बन चुका है। सन 2012 में भी यहां पर 17 दिनों तक 'जल सत्याग्रह' चला था और देश ने पहली बार एक नया सत्याग्रह देखा। अब फिर इसी गांव में 'जल सत्याग्रह' 11 अप्रैल से जारी है। ओंकारेश्वर बांध की ऊंचाई 189 मीटर से बढ़ाकर 191 मीटर किया गया है ताकि नर्मदा का पानी उज्जैन तक पहुंच जाए। इस ऊंचाई से डूब में आए घोगल गांव सहित दर्जनों गांवों के पीढ़ियों से रह रहे किसान, आदिवासी, रहवासी प्रभावित हुए और जल सत्याग्रह की राह पकड़ ली। किसान, सरकार और हकीकत सामने है। इधर सत्याग्रहियों की चमड़ी गल रही है, उधर लगातार पानी छोड़ा जा रहा है और बांध भरता जा रहा है। मार्च और अप्रैल महीने की बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि से अनुमानत: देश में 80 से 85 लाख हेक्टेयर में रबी की फसल बरबाद होने की आशंका। केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा कोष से किसानों को दी जाने वाली मदद में फसल नुकसानी का आंकड़ा 50 फीसदी को घटाकर 33 फीसदी कर दिया। कहने को तो किसानों के पास फसल बीमा का कवर भी है। लेकिन एग्रीकल्चर इंश्योरेन्स कंपनी अर्थात एआईसी के चीफ रिस्क ऑफीसर के.एन. राव कहते हैं, "हम बीमे की राशि देंगे, इस बार ज्यादा देंगे। मगर इसमें समय लगेगा क्योंकि नुकसान की तस्वीर साफ होने में ही पांच से छह महीने लग जाएंगे। मतलब साफ है बीमे की राशि मिलने में साल भर भी लग सकते हैं।" केन्द्रीय कृषि मंत्री मानते हैं कि "हालिया प्राकृतिक आपदा से केवल पांच प्रतिशत फसल कम होगी, सरकार के पास पहले से ही बफर स्टॉक है और इससे खाद्य सुरक्षा योजना पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।" क्या यह किसानों के ऊपर तमाचे से कम है।भूमि अधिग्रहण विधेयक को केन्द्र सरकार वक्त की जरूरत बता रही है। केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू का ताजा बयान "वक्त बीता जा रहा है। हम पिछड़ते जा रहे हैं। दुनिया तेजी से आगे बढ़ रही है, भारत को पीछे नहीं रहना है।" इशारा साफ है यहां भी डाका किसानों के हक पर ही पड़ेगा।59 दिनों की छुट्टी के बाद लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सबसे पहले किसानों को ही टटोला। सन 2011 में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ भट्टा परसौल से शुरू हुई पदयात्रा की याद दिला दी और संकेत दे दिया कि किसानों के लिए लड़ने को वह तैयार हैं। शायद यहीं से कांग्रेस को किसानों की जाती जमीन में अपने लिए लहलहाती फसल तैयार करने का सुनहरा मौका दिख रहा हो। किसान मजदूर सभा भी 24 अप्रैल को जंतर-मंतर पर धरना देकर अपनी फसल उगाने की जुगत में है। सच्चाई यह है कि किसान किसान का भाग्य मौसम की कृपा पर निर्भर हो गया है। एक कड़वा सच यह भी कि देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में कृषि का केवल 14 प्रतिशत ही योगदान है, लेकिन उससे भी बड़ी सच्चाई यह कि देश में 49 प्रतिशत लोगों के लिए रोजगार का जरिया भी यही कृषि है। स्टडी फॉर डेवलपिंग सोसायटीज यानी सीएसडीएस के सर्वेक्षण पर निगाह डालें तो साफ है कि सरकार की कृषि नीतियों का फायदा पूरी तरह से धनी किसानों को ही मिलता है। बीते 10 वर्षो में कई खाद्यान्नों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 100 प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ा है। लेकिन देशभर में 62 प्रतिशत किसान इससे बेखबर हैं। मतलब साफ है कृषि क्षेत्र आयकर मुक्त है, फायदा कौन लेते होंगे, कहने की जरूरत नहीं है।65 फीसदी युवा भारत का दंभ भरना जरूर गौरव की बात है। लेकिन उनके लिए अन्न पैदा करने वाला किसान किस कदर बेहाल है, इस पर सिवाय राजनीति के क्या हुआ, खुली किताब है।कर्ज लेकर फसल की उम्मीद में प्रकृति की मार से हैरान-परेशान किसान आत्महत्या और बच्चों को गिरवी रखने तक को मजबूर है। एक बड़ी सच्चाई यह भी कि सवा सौ करोड़ वाले भारत देश के 90 प्रतिशत किसानों की मासिक औसत आय केवल 3078 रुपये से भी कम है। इस सबके बीच भूमि अधिग्रहण विधेयक का किसानों पर ग्रहण और जय किसान का नारा कितना प्रासंगिक है पता नहीं। इतना जरूर पता है कि भारत का किसान भगवान से हर रोज यही विनती करता होगा "अगले जनम मोहे किसान न कीजो।"(लेख में व्यक्त लेखक के निजी विचार हैं।)

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