• माओवादी विचार रखना अपराध नहीं

    केरल हाईकोर्ट ने शुक्रवार को एक ऐसा फैसला दिया है, जो कई कारणों से महत्वपूर्ण है और जिस पर देशव्यापी विमर्श की आवश्यकता है। माओवादी होने के संदेह पर श्याम बालकृष्णन नामक एक व्यक्ति को केरल पुलिस ने गिरफ्तार किया था, लेकिन वह अदालत में उसका जुर्म साबित नहींकर पाई।...

    केरल हाईकोर्ट ने शुक्रवार को एक ऐसा फैसला दिया है, जो कई कारणों से महत्वपूर्ण है और जिस पर देशव्यापी विमर्श की आवश्यकता है। माओवादी होने के संदेह पर श्याम बालकृष्णन नामक एक व्यक्ति को केरल पुलिस ने गिरफ्तार किया था, लेकिन वह अदालत में उसका जुर्म साबित नहींकर पाई। न्यायाधीश ए मोहम्मद मुश्ताक ने इस पर फैसला सुनाया कि किसी व्यक्ति को महज इसलिए गिरफ्तार नहींकर सकते कि वह माओवादी संगठन से जुड़ा है। फैसले में कहा गया कि यदि कोई व्यक्ति या संगठन हिंसा या घृणा फैलाता है तो कानूनी एजेंसी ऐसे व्यक्तियों या संगठनों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है। न्यायाधीश ने कहा कि पुलिस किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए हिरासत में नहीं ले सकती कि वह माओवादी है, जब तक कि वे उसे गैरकानूनी गतिविधियों में संलिप्त न पाएं।गिरफ्तारी पर कानून की वैधानिक प्रक्रिया को निर्धारित करने का अधिकार संविधान के पास है, इसका उल्लेख करते हुए न्यायाधीश ने कहा कि ऐसे में पुलिस मात्र इस आधार पर किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकती है कि वह माओवादी है। उच्च न्यायालय ने कहा कि माओवादी होना अपराध नहीं है, हालांकि माओवादियों की राजनीतिक विचारधारा हमारी संवैधानिक शासन व्यवस्था के साथ तालमेल नहीं बिठा पाई। मानवीय आकांक्षाओं के बारे में सोचना एक बुनियादी मानव हक है। स्वतंत्रता तब अवैध होती है, जब इसका टकराव देश के कानून से होता है। मामले को खारिज करते हुए न्यायाधीश मुश्ताक ने दो महीने के भीतर बालकृष्णन को एक लाख रुपये मुआवजा देने का भी आदेश दिया है। राज्य सरकार को भी अदालत ने कानूनी खर्च के रूप में 10,000 रुपये देने का आदेश दिया. हालांकि, उसे गिरफ्तार करनेवाले अधिकारियों के खिलाफ विभागीय जांच का आदेश देने की बालकृष्णन की मांग को खारिज कर दिया गया है। बालकृषणन को जिस आधार पर केरल पुलिस ने गिरफ्तार किया, उस आधार पर देश के विभिन्न राज्यों में भी गिरफ्तारियां हुई हैं और अपराध साबित होने से पहले ही कई-कई दिनों की जेल व पुलिस प्रताडऩाएं गिरफ्त लोगों को सहना पड़ा है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश ऐसे कई नक्सल प्रभावित राज्यों में इस तरह के मानवाधिकार के मुद्दे समय-समय पर उठते रहे हैं। यह सही है कि नक्सलवाद के कारण देश की आंतरिक शांति, कानून व्यवस्था को बहुत नुकसान पहुंचा है। तीन दशक से भी अधिक समय हो गया, एक निरंतर गृहयुद्ध देश में चल रहा है। देश के विकसित शहरी इलाके, साधन-संपन्न क्षेत्रों में नक्सलवाद का असर नजर नहींआता और न ही आम जनता की रूचि इस असर को समझने में होती है। लेकिन देश के पिछड़े, ग्रामीण, आदिवासी, वनाच्छादित क्षेत्र, जहां सुविधाएं शून्य हैं, और सरकारी मशीनरी की जगह नक्सलवाद का तंत्र व्यवस्था चलाता है, वहां जीवन कितना कठिन है, इसे वे ही लोग समझ सकते हैं, जो इसके भुक्तभोगी हैं। जब नक्सलियों द्वारा किसी बड़ी हिंसक वारदात को अंजाम दिया जाता है, तब इन इलाकों की चर्चा देश के मीडिया में होती है। अन्यथा अनजाने, अबूझे से ये गांव, कस्बे और यहां की जनता दिन-रात गोली-बारूद के बीच जीवन बिताती है, यहां के नौनिहाल बंदूक और बम के धमाकों के आदी होते हैं और उनके भविष्य के चिथड़े इन धमाकों में रोजाना उड़ते हैं। इस स्थिति के लिए जितने नक्सली जिम्मेदार हैं, उतना ही सरकारी तंत्र भी। केेंद्र या राज्य सरकारों की ओर से इतने वर्षों बाद भी नक्सल समस्या के हल के लिए कोई ठोस योजना पेश नहींकी जा सकी है। गोली का जवाब ज्यादा बड़ी गोली से देने की मानसिकता के कारण माओवाद या नक्सल समर्थक लोगों को गिरफ्तार किया जाता है, उन्हें पुलिस हिरासत में लेकर जानलेवा प्रताडऩाएं दी जाती हैं, ताकि जानकारी हासिल की जा सके। इस समूची प्रक्रिया में मानवाधिकारों का धड़ल्ले से हनन होता है और अगर कोई इस पर नक्सलियों या माओवादियों के लिए सहानुभूति दर्शाए तो वह भी पुलिस हिरासत में लिया जा सकता है, ऐसा माहौल बना हुआ है। इस माहौल के कारण एक अव्यक्त दहशत माओवाद समर्थकों या उनसे सहानुभूति रखने वालों पर तारी है। न जाने कब किस बात पर पुलिस गिरफ्तार कर ले और जिंदगी बर्बाद हो जाए। ऐसे में केरल हाईकोर्ट का फैसला अभिव्यक्ति, विचार, नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार हर नजरिए से ऐतिहासिक है।

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