भारत में पूंजीवाद अपनी चमक बिखरते हुए आगे बढ़ रहा है। विकास की नई इबारतें लिखी जा रही हैं। जनता को यही समझाया जा रहा है कि विदेशों के निवेश करने से, भारत की सदानीरा नदियों, उपजाऊ जमीन को उद्योगों के हवाले करने से ही प्रगति संभव है। यहां के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सामान बनेगा, तो विदेशी हमसे और प्रभावित होंगे। मेक इन इंडिया की धमक बढ़ेगी। गांवों को शहरों की तरह स्मार्ट बनाना है तो सड़केें, फ्लाईओवर, बड़ी इमारतों का तामझाम करना पड़ेगा। इसलिए खेती की जमीन लेना जरूरी है। अनाज का क्या है, वह तो आयात किया जा सकता है। भारतीय महंगाई के अभ्यस्त हैं, और विदेशी उत्पाद के कायल हैं, सो वे आयातित महंगा अनाज, चाहे वह कैसा भी क्यों न हो, खरीद ही लेंगे। स्मार्ट सिटी के नाम पर गांव खत्म हो जाएंगे, तो गंवई किसानों का भी क्या काम? वे या तो शहरों की ओर पलायन करें या दुनिया से ही कूच कर जाएं। प्रकृति के नित नए खेलों से खेती बर्बाद हो ही रही है, सरकार के पास सुनवाई वैसी ही हो सकती है, जैसे अंधेर नगरी, चौपट राजा में हुई थी। सो किसान अपने गले में फांसी का फंदा डाल रहा है। उसकी घुटन शायद कर्ज के फंदे से थोड़ी कम होती होगी। महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, प.बंगाल, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान हर कहींसे किसानों की आत्महत्या के समाचार बढ़ते जा रहे हैं। कहीं6 सौ किसानों ने अपनी जान दे दी, तो कहीं3 सौ ने। कहीं आंकड़ा अभी सौ के पार नहींपहुंचा तो अधिक हलचल नहींमच रही। सरकारें मृत किसानों के परिजनों को मुआवजा बांट रही हैं। कितनी फसल नष्ट होने पर कौन कितने मुआवजे की घोषणा करता है, इसकी प्रतियोगिता विभिन्न सरकारों के बीच चल रही है। खेती-किसानी और किसान की जमीन इस वक्त राजनीति के बाजार में ताजा माल है, हर दल इसे बेचकर मुनाफा कमाना चाहता है। आम आदमी पार्टी जो बाकी दलों से अलग होने का दावा करती है और उसके नेता अरविंद केजरीवाल बार-बार कहते हैं कि वे राजनीति करने नहींआए, वे भी इस माल को बेचने का लोभ संवरण नहींकर सके। पहले उन्होंने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर संसद कूच का ऐलान किया था और जब उसकी मंजूरी नहींमिली तो जंतर-मंतर पर किसान रैली की। इस रैली में हजारों लोग जुटे, जैसा कि आप की रैलियों में जुटते रहे हैं। आप के कार्यकर्ताओं की फौज थी, व्यवस्था संभाल रही पुलिस थी और इन सबके बीच था राजस्थान के दौसा से आया किसान गजेंद्र सिंह, जिसने इस भरी भीड़ के बीच ही पेड़ पर लटक कर आत्महत्या कर ली। तमाशबीन लोग देखते रहे, पुलिस घटना के पूरे होने का इंतजार करती रही, मंच से आप के नेता भाषण देते रहे और गजेंद्र सिंह की मौत हो गई। संवदेनहीनता, आत्ममुग्धता, उदासीनता का यह बड़ा उदाहरण है, लेकिन इससे भी बड़ा उदाहरण है इस घटना के बाद आरोप-प्रत्यारोप और खेद प्रकट करने की राजनीति। आप के नेता भाजपा और कांग्रेस को कोस रहे हैं, भाजपा आप को ताने दे रही है। गजेंद्र सिंह की मौत पर अरविंद केजरीवाल, नरेन्द्र मोदी खेद व्यक्त कर रहे हैं, दुख की इस घड़ी में....जैसे संवाद दोहरा रहे हैं। यहां कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की प्रतिक्रिया गौरतलब है जिन्होंने कहा कि दुख की इस घड़ी में वे कोई बयान नहींदेना चाहते, लेकिन किसानों को आश्वस्त करना चाहते हैं कि उनकी पार्टी किसानों के साथ खड़ी है। यह उनका बदला राजनीतिक अंदाज है। लेकिन क्या इससे किसानों के हालात बदल जाएंगे। किसानों के साथ खड़ा होने का दावा तो हर दल कर रहा है, फिर क्यों किसान खड़े होने की हिम्मत खोकर मौत की नींद सोने का विकल्प चुन रहे हैं। क्या मजबूत सरकार भीतर से इतनी खोखली है कि वह अपने किसानों को अच्छे दिन आने का भरोसा नहींदिला पा रही। प्राकृतिक विपदाओं पर किसी का बस नहीं, लेकिन जो देश आटो किराए से कम खर्च में मंगल अभियान पूरा करने की वैज्ञानिक योग्यता रखता है, वहां खेत और फसलें बचाने के सस्ते, टिकाऊ वैज्ञानिक उपाय क्या नहींखोजे जा सकते? कृषि विज्ञान और पारंपरिक खेती के तरीकों में इन विपदाओं का हल छिपा है, लेकिन ऐसा लगता है कि साजिशन खेती को बर्बाद किया जा रहा है और दोष प्रकृति पर डाला जा रहा है। अपने सामने एक किसान को मरते देख भी जब प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री इतने दुखी नहींहुए कि इस मुद्दे पर राजनीति न करें, तो देश भर में हो रही किसान की मौतों की खबर से वे क्या खाक द्रवित होते होंगे? अंधेर नगरी में गुरु की चतुराई से राजा फांसी पर लटक गया, पर आज की अंधेर नगरी में गुरु और राजा की मिलीभगत है। अब इस कहानी को नए सिरे से लिखने की जरूरत है।