• प्रकृति का सम्मान

    पिछले 24 घंटों से बारिश न होने और झेलम नदी का जल स्तर थोड़ा उतरने से अब जम्मू-कश्मीर में बाढ़ का खतरा टल गया दिखता है, लेकिन लोगों के मन से डर खत्म नहींहो रहा। अभी पिछले साल ही नैसर्गिक सौंदर्य के धनी इस प्रदेश में प्रकृति ने ऐसा प्रकोप दिखाया कि चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। जो जगह धरती पर स्वर्ग कहलाती है, वह नरक जैसी बन गई। ...

    पिछले 24 घंटों से बारिश न होने और झेलम नदी का जल स्तर थोड़ा उतरने से अब जम्मू-कश्मीर में बाढ़ का खतरा टल गया दिखता है, लेकिन लोगों के मन से डर खत्म नहींहो रहा। अभी पिछले साल ही नैसर्गिक सौंदर्य के धनी इस प्रदेश में प्रकृति ने ऐसा प्रकोप दिखाया कि चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। जो जगह धरती पर स्वर्ग कहलाती है, वह नरक जैसी बन गई। सितंबर 2014 में भीषण बाढ़ यहां आई थी, जिसने हजारों लोगों को प्रभावित किया। कितने अकाल मौत के मुंह में समा गए, कितनों की खेती-बाड़ी, घर-बार उजड़ गए, सैकड़ों बेरोजगार, बेघर हो गए। प्रशासन स्वयं प्रकृति की विनाशलीला से प्रभावित था, इसलिए तत्काल सहायता, राहत कार्य प्रारंभ नहींहो सके और जनता को कई तकलीफों का सामना करना पड़ा। उन तकलीफों से किसी तरह बाहर निकले तो अब फिर मौसम ने तीखे मिजाज दिखाए और मूसलाधार बारिश से बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो गया। पिछले वर्ष की तबाही से घबराए लोगों ने इस बार बारिश शुरु होते ही एहतियात बरतनी शुरु कर दी और घर छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर जाने लगे। फिर भी 16 लोगों ने प्राण गंवा ही दिए। केेंद्र और राज्य सरकार ने मिलकर राहत व बचाव कार्यों में मुस्तैदी दिखाई। हालात अभी संभले हैं और प्रशासनिक चुस्ती से यह आश्वासन मिलता है फिलहाल कोई आपातकालीन स्थिति उत्पन्न नहींहोगी। किंतु एक के बाद एक प्राकृतिक विपदाओं पर हम महज राहत के इंतजाम कर इत्मीनान से नहींबैठ सकते। बचाव से पहले हमें प्राकृतिक आपदाओं के कारणों की पड़ताल भी करनी चाहिए। भूकंप, सुनामी या ज्वालामुखी जैसी विपत्तियों पर इंसान का वश नहींहै। बारिश और सूखे के कारण भी प्राकृतिक होते हैं, किंतु इसमें इंसान भी कुछ हद तक जिम्मेदार होता है। दो साल पहले उत्तराखंड में बारिश कहर बन कर टूटी, फिर कश्मीर में यह जानलेवा मुसीबत साबित हुई। देश के अधिकतर प्रदेशों में बारिश का मौसम आते ही नदियां तटबंध तोड़ आबादी वाले इलाकों में उमड़ती चली जाती हैं और उसके साथ इंसान, पेड़-पौधे, मवेशी बह जाते हैं। नदियों के किनारे बस कर जंगल-जंगल भटकते इंसान ने सभ्यता की विकास यात्रा प्रारंभ की और अपने जीवन में ठहराव लाने की कोशिश की। लेकिन अब विकास की अंधी दौड़ में वह नदियों से उनका अधिकार ही छीनने पर तुल गया है। नदियां स्वाभाविक तौर पर बहती हैं, अपना रास्ता बनाती हैं। इंसान उस रास्ते में रोड़ा बन रहा है, नदियों से उनकी जगह जबरदस्ती लेकर उस पर निर्माण कार्य कर रहा है। यही व्यवहार पहाड़ों, जंगलों के साथ है। विद्यालयों में पर्यावरण संरक्षण का पाठ अनिवार्यत: पढ़ाया जा रहा है। लेकिन जीवन के व्यवहार में यह पाठ दूर-दूर तक लागू नहींकिया जाता। पर्यावरण दिवस के दिन पौधारोपण करने या जल संरक्षण दिवस पर जल बचाने के संदेश लिखने या अर्थ आïवर के वक्त एक घंटे के लिए बिजली बंद करने जैसे सांकेतिक उपायों से पर्यावरण विनाश की गंभीर समस्या हल नहींहोने वाली। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति के संसाधन सीमित हैं तो उनका असीमित दोहन और उपयोग अंतत: विनाश का कारण बनेगा। विकास करने की चाह में हम प्रकृति को नुकसान पहुंचा कर हम दरअसल उसी डाल को काटने की मूर्खता कर रहे हैं, जिस पर बैठे हैं। अब वक्त आ गया है कि हम प्रकृति की रक्षा के संकल्प से पोषित परियोजनाओं को अपनाएं। सरकार को इस दिशा में पहल करने, कानून बनाने और कड़ाई से उसका पालन करवाने की जरूरत है। समाज भी तभी इसमें अपना सहयोग दे पाएगा। वैकल्पिक ऊर्जा की बात नारों भाषणों तक सीमित न रहे, व्यवहार में उतारी जाए। जल, जंगल, जमीन इनका संरक्षण भी जुमलेबाजी तक न सिमटे। औद्योगिक और आर्थिक विकास को हम तभी सार्थक मानें जब वह अधिकाधिक लोगों तक पहुंचे और दूसरों का हक न मारे। जब प्रकृति का सम्मान हम करना शुरु कर देंगे तो शायद इस तरह बार-बार लगातार उसकी विपदाओं का सामना न करना पड़े।

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