स्कूल-कालेजों में परीक्षाओं का मौसम खत्म हो गया और परिणामों व नई कक्षाओं में प्रवेश का सिलसिला प्रारंभ होने का वक्त आ गया। नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश के लिए स्कूलों के बाहर घंटों कतार में खड़े होने के बाद जब बच्चे को प्रवेश मिल जाता है तो इस सफलता पर मां-बाप को इस तरह बधाई दी जाती है, मानो जिंदगी की बड़ी उपलब्धि हासिल हो गई। प्रवेश की इस कठिनाई से गुजरने के बाद आगे और कड़े इम्तिहान होते हैं। पढ़ाई का अर्थ, कुछ नया सीखना नहींबल्कि कोई स्थान हासिल करना हो, प्रतिद्वंद्विता की भावना स्वस्थ न हो, विकृत हो, विद्यार्थी की लगन मां-बाप की उम्मीदों के बोझ से दबी हो तो इम्तिहानों की कठिनाई बढ़ेगी ही। कुछ विद्यालयों में पांचवींऔर कुछ में आठवींतक विद्यार्थी बेरोकटोक आगे की कक्षा में बढ़ा दिए जाते हैं। साल भर किस तरह की पढ़ाई हो रही है, कितनी पढ़ाई हो रही है, बच्चे क्या सीख रहे हैं, परीक्षा का मापदंड अलग-अलग मानसिक क्षमता वाले विद्यार्थियों के लिए एक जैसा कैसे हो सकता है, इन सब पहलुओं की समुचित मीमांसा के बिना ही परीक्षा प्रणाली और परिणामों का खेल हमारे देश में चल रहा है। तीन घंटे में साल भर की पढ़ाई का लेखा-जोखा कर लिया जाता है। इस अव्यवहारिक कार्य को पूरा करने के लिए कई भ्रष्ट तरीके अपनाए जाते हैं, नकल उनमें से एक है। कुछ दिनों पहले बिहार की एक तस्वीर खूब चर्चा में आई, परीक्षा केेंद्र के भीतर नकल करवाने के लिए परीक्षार्थियों के परिजन इमारत पर चढ़े थे, कुछ खिड़कियों से नकल के पर्चे भीतर भेज रहे थे। उत्तरप्रदेश, हरियाणा में भी नकल की खबरें आईं। तीन दिन पहले छत्तीसगढ़ में सोशल नेटवर्किंग के माध्यम व्हाट्सऐप से नकल करते हुए विद्यार्थी पकड़े गए। उत्तरप्रदेश में यूपी पीसीएस की परीक्षा के पहले ही पर्चे व्हाट्सऐप से लीक हो गए। जो विद्यार्थी अरसे से परीक्षा की तैयारी कर रहे थे और अच्छी नौकरी के सपने संजोए थे, उनकी मेहनत पर कुछ लोगों की कारस्तानी से पानी फिर गया। नकल या पर्चे लीक होने की घटना पहली बार नहींहो रही, हर साल ऐसे अनेक प्रकरण घटित होते हैं। इन्हें रोकने के लिए सरकार पुलिस की सहायता लेती है। कैसी विडंबना है, जो पुलिस चोर, डाकुओं, आतंकवादियों, अपराधियों को पकडऩे का काम करती है, वही विद्यार्थियों की नकल पकडऩे के काम में लगती है। परीक्षा का संबंध शिक्षक, विद्यार्थी, विद्यालय से होना चाहिए, पुलिस प्रशासन का उसमें क्या काम? क्या देश के भविष्य कहे जाने वाले ये बच्चे सचमुच इसी व्यवहार के हकदार हैं? मात्र इसलिए कि वे शिक्षा और परीक्षा प्रणालियों की खामियों का शिकार हैं? परीक्षा, नकल, परिणाम, ऐसे जाल में विद्यार्थी फंसे हैं तो शिक्षकों की दशा भी विचारणीय है। बिहार में बिहार पंचायत नगर प्रारंभिक शिक्षक संघ के नेता 23 मार्च से पटना में अनशन पर बैठे हैं। समान काम के लिए समान वेतन, वेतनमान, ऐच्छिक स्थानांतरण, स्नातक ग्रेड में स्नातक पास शिक्षकों का समायोजन, टीइटी-एसटीइटी पास सभी अभ्यर्थियों की सीधी बहाली, नियोजित शिक्षकों की किसी कारण से मृत्यु के बाद एकमुश्त 10 लाख की राशि उसके परिजनों को देना, 30 बच्चों पर एक शिक्षक का अनुपात करना, अप्रैल में ही स्कूली बच्चों को किताब समेत छात्रवृत्ति व पोशाक राशि देना, ऐसी इनकी कुछ मांगे हैं। चूंकि अब यह अनशन राजनीतिक मुद्दा बनता जा रहा है, इसलिए मुमकिन है सरकार व अनशनकारियों के बीच कोई समझौता करवाया जाए। कई राजनेता अनशनस्थल पर जाकर इनके प्रति अपना समर्थन प्रदर्शित कर आए हैं। लेकिन इससे इन शिक्षकों की भावी दशा सुधरेगी, इसमें संदेह है। देश के कई राज्यों में कहींगुरुजी, कहींशिक्षा मित्र नामों से अस्थायी नौकरी करने वाले शिक्षक अपने वेतन या अन्य मांगों को लेकर कई बार हड़ताल पर बैठते हैं, वोट बैंक में इनका वजन देखकर सरकार या राजनीतिक दल अपना फैसला लेते हैं। शिक्षक हों या विद्यार्थी, उनके साथ ऐसा व्यवहार दरअसल शिक्षा की अवहेलना है। शिक्षा प्रणाली में दूरदर्शी सोच की जगह तात्कालिक समाधान निकालने का यह नजरिया अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाला है।