• महान किसानों का देश

    भारत के बहुतेरे लोगों का ध्यान इस वक्त विश्वकप क्रिकेट में लगा हुआ है। विराट ने कैसा शानदार शतक लगाया। शिखर धवन ने कैसे मैच जिताया। क्रिस गेल ने विश्वकप में दोहरा शतक लगाने का कमाल किया। इन सबका आनंद इन दिनों उठाया जा रहा है। लेकिन देश में इस वक्त एक मैच और चल रहा है। केेंद्र सरकार बनाम किसानों का।...

    भारत के बहुतेरे लोगों का ध्यान इस वक्त विश्वकप क्रिकेट में लगा हुआ है। विराट ने कैसा शानदार शतक लगाया। शिखर धवन ने कैसे मैच जिताया। क्रिस गेल ने विश्वकप में दोहरा शतक लगाने का कमाल किया। इन सबका आनंद इन दिनों उठाया जा रहा है। लेकिन देश में इस वक्त एक मैच और चल रहा है। केेंद्र सरकार बनाम किसानों का। इस मैच के आयोजक, सरकार के प्रायोजक, अंपायर सभी उद्योगपति हैं। किसानों की टीम का साथ कुछ गैरसरकारी संगठन, कुछ राजनीतिक दल दे रहे हैं, लेकिन सरकार की टीम खेल के नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए खेल रही है, और उसका दावा है कि उसके सारे पैंतरे, दांवपेंच विरोधी टीम के भले के लिए रचे गए हैं। अब वक्त आ गया है कि जनता विश्वकप क्रिकेट के साथ-साथ देश में रचे गए इस खेल को भी देखे और समझे। राजनीति है, उसमें ऐसा चलता रहता है, ऐसा कहने से अंतत: नुकसान जनता का ही होगा। इसमें कोई संदेह नहींहै कि नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना उद्योगपतियों के लिए काफी फायदे का सौदा साबित हुआ। विगत 9-10 माह में केेंद्र सरकार के सारे कार्य उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किए गए, भले उसमें मुखौटा जनहित का लगाया गया। भूमि अधिग्रहण पर संसद के पिछले सत्र में अध्यादेश पारित करना भी ऐसा ही एक कदम था। सरकार का तर्क है कि अध्यादेश लाने वाले हम अकेले नहींहैं, यह प्रथा नेहरूजी के समय से चली आ रही है। इसका मतलब यही है कि वर्तमान सरकार अपनी ओर से कोई सुधारवादी कदम नहींउठाना चाहती। अगर अतीत में गलत प्रथाएं चली हैं, तो क्या वर्तमान में उसे जारी रखा जाना चाहिए या उन्हें बंद करना चाहिए। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लाने का तर्क यह दिया गया कि समय सीमा खत्म हो रही थी, तो अध्यादेश लाना पड़ा। हकीकत यह है कि सरकार आठ महीनों तक इस मुद्दे पर गुपचुप काम करती रही और बाद में समय का हवाला देकर अध्यादेश पेश कर दिया। भाजपा के प्रवक्ता अपनी सरकार के इस कदम के पक्ष में तर्क देते हैं कि देश में सौ स्मार्ट सिटी बनाने की हमारी योजना है। बिना प्राइवेट स्कूल और अस्पताल के यह कैसे पूरी होगी, इसके लिए जमीन तो चाहिए। उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि स्मार्ट सिटी की योजना बनाने से पहले क्या सरकार ने किसानों से पूछा था। क्या जनता से पूछा था कि उसकी प्राथमिकता अनाज है या निजी स्कूल और अस्पताल। निजी क्षेत्रों को बढ़ाने की जगह सरकारी स्कूल और अस्पतालों के हालात सुधारकर क्या देश के वर्तमान शहरों को स्मार्ट नहींबनाया जा सकता? ऐसे सवालों की सूची बहुत लंबी हो सकती है, लेकिन इनमें से किसी का भी जवाब मिलेगा, इसमें संदेह है। क्योंकि सरकार अपनी असली नीयत छिपाने पर तुली है। राज्यसभा में इस मसले पर काफी हंगामा हुआ और लोकसभा में विपक्ष ने वाकआउट कर दिया तब भी केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री डा.चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने इसे पेश कर ही दिया। अन्ना हजारे ने हजारों किसानों के साथ सरकार के इस अध्यादेश के खिलाफ आंदोलन शुरु कर दिया है। वे इसे अंग्रेजों के जमाने में बने कानून से भी बदतर बता रहे हैं। हकीकत भी यही है। सरकार चाहती तो पिछली सरकार के वक्त बने कानून को जारी रख सकती थी। लेकिन इसमें किसानों का भला अधिक था, उद्योगपतियों का कम। यही कारण है कि मनमोहन सिंह सरकार में बनाए गए कानून के साथ किसान भी थे। उसमें बंजर जमीन ही लेने का प्रावधान था, जिसमें गांव के 70 प्रतिशत किसानों की मंजूरी जरूरी थी। पांच साल तक कोई विकास का कार्य न हो तो उसे वापस करने की व्यवस्था भी थी। मुआवजा न मिलने पर किसान अदालत जा सकता था। लेकिन मोदी सरकार के अध्यादेश में न किसानों से मंजूरी के लिए कोई जगह है, न उसकी जमीन वापस मिलने की कोई गुंजाइश। उपजाऊ, सिंचित भूमि किसान से ली जा सकती है और वह अदालत भी नहींजा सकता। उद्योगपतियों ने किसानों से केवल उनके खेत ही नहींछीने, उनके हल-बैल भी अपने कब्जे में ले लिए हैं। सरकार इसमें उनका साथ दे रही है। आने वाले कल में हम ये भी देखेंगे कि अदानी और अंबानी जैसे लोग इस देश के महान उद्योगपति नहीं, महान किसान कहलाएंगे, जिन्होंने कृषि उद्योग में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। देश फिलहाल क्रिकेट के नए कीर्तिमानों में रमा रहे।

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