• किसी को अपनों की तलाश तो किसी को राहत की दरकार

    श्रीनगर ! बारह दिनों से बाढ़ के पानी में डूबे हुए कश्मीर में शोक की अंतहीन कथाओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। यूं यूं पानी उतर रहा है अपनों की तलाश तेज होती जा रही है। यही नहीं कई इलाके तो ऐसे हैं कि वहां अभी राहत की ही तलाश खत्म नहीं हो पाई हैै। अपनों की तलाश में सिर्फ आम कश्मीरी ही नहीं जुटे हैं बल्कि राज्य के बाहर से आने वाले लोग भी हैं।...

     श्रीनगर !   बारह दिनों से बाढ़ के पानी में डूबे हुए कश्मीर में शोक की अंतहीन कथाओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। यूं यूं पानी उतर रहा है अपनों की तलाश तेज होती जा रही है। यही नहीं कई इलाके तो ऐसे हैं कि वहां अभी राहत की ही तलाश खत्म नहीं हो पाई हैै। अपनों की तलाश में सिर्फ  आम कश्मीरी ही नहीं जुटे हैं बल्कि राज्य के बाहर से आने वाले लोग भी हैं।ऐसे ही एक व्यक्ति हैं बिहार के रहने वाले जितेंद्र साहा जो स्नैक्स बेचकर अपनी रोजी रोटी चलाते थे। बाढ़ उनके पूरे परिवार को लील गई। वह तीन मंजिला इमारत के मलबे में अपनी 20 वर्षीय बेटी के शव की तलाश कर रहे हैं। समूचे शहर को जलमग्न कर देने वाली बाढ़ ने उनकी पत्नी, तीन बेटियों और एक बेटे को हमेशा-हमेशा के लिए उनसे जुदा कर दिया। पिछले चार दिनों में साहा अपने परिवार के सदस्यों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं, लेकिन उनकी पत्नी और बड़ी बेटी के शव अब भी शहर के जवाहर नगर में एक मकान के मलबे के नीचे दबे हैं। बीए द्वितीय वर्ष में पढऩे वाली अपनी बेटी प्रियंका को जीवन में बड़ा आदमी बनाने का साहा का सपना इस विपदा के साथ ही टूट गया। बिहार निवासी साहा अपने परिवार के साथ 2001 में श्रीनगर आए थे जहां वह एक अस्पताल के बाहर स्नैक्स बेचने का काम करने लगे। उन्होंने कहा कि मैं श्रीनगर में स्नैक्स बेचकर अपनी आजीविका चलाता था। मेरी बड़ी बेटी मेधावी छात्रा थी। वह अधिकारी बनना चाहती थी। घटना वाले दिन साहा के हाथ में एक लकड़ी का तख्ता आ गया था जिससे उनकी जान बच गई, जबकि परिवार के शेष सदस्यों की मौत हो गई। उन्होंने अपनी आंखों से अपने परिवार को मौत के मुंह में जाते देखा। उनका कहना था कि मैं सारी रात मदद के लिए चिगाता रहा। मैंने अपने जीवन में इस तरह की लाचारी कभी नहीं देखी। मुझे भी मर जाना चाहिए था। मैं जिन्दा क्यों हूं। साहा ने कहा कि ईश्वर मेरे प्रति इतना कु्रर हो गया। मेरा पूरा परिवार अब खत्म हो गया है। मैं बिहार में रहने वाली अपनी मां को कैसे बताउं कि उसका पूरा वंश अब खत्म हो गया है। ऐसी कहानियां बहुतेरी हैं कश्मीर में जहां जिन्दगी अभी भी किचड़ और पानी से जंग कर रही है। जो चले गए उनकी जंग खत्म हो गई और जो बचे हैं वे रोज एक नई जंग लड़ रहे हैं। उनकी जंग या तो अपनों की तलाश की है या फिर राहत पाने की।ऐसी ही कथा पादशाही बाग के रहने वाले गुलाम रसूल की भी है। उसके मकान तबाह हो चुके हैं। वे सड़क पर आ गए हैं। अब खाने के भी लाले हैं। जब वे सुनते हैं कि उनके इलाके के लिए यहां रिलीफ में चावल आया है, तो पुलिवालों के पास चले आते हैं।

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