• संविधान सेवानिवृत्ति पर न जाए

    60-62 की आयु पार करते हुए ही बहुत से लोगों के जीवन में सेवानिवृत्ति का दौर आ जाता है। सरकारी नौकरी में सेवानिवृत्ति अनिवार्य है और निजी उद्यम में संलग्न कई लोग उम्र के इस पड़ाव पर आकर यह मान लेते हैं कि जीवन भर काम किया, अब आराम का वक्त है। सक्रिय जीवन के इस ऐच्छिक-अनैच्छिक त्याग के बाद अमूमन स्थिति यह आ जाती है कि जिन्होंने हमेशा परिवार में मार्गदर्शन किया, वे घर के किसी कोने में उपेक्षित पड़े रह जाते हैं। ...

    60-62 की आयु पार करते हुए ही बहुत से लोगों के जीवन में सेवानिवृत्ति का दौर आ जाता है। सरकारी नौकरी में सेवानिवृत्ति अनिवार्य है और निजी उद्यम में संलग्न कई लोग उम्र के इस पड़ाव पर आकर यह मान लेते हैं कि जीवन भर काम किया, अब आराम का वक्त है। सक्रिय जीवन के इस ऐच्छिक-अनैच्छिक त्याग के बाद अमूमन स्थिति यह आ जाती है कि जिन्होंने हमेशा परिवार में मार्गदर्शन किया, वे घर के किसी कोने में उपेक्षित पड़े रह जाते हैं। खास मौकों पर ही समाज के सामने बाल-बच्चे उनकी इज्जत करते दिखते हैं। आज हमारे संविधान की दशा भी घर के सेवानिवृत्त बुजुर्ग सी हो गई है। हम 66वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं। 26 जनवरी 1950 को संविधान भारत में प्रभावी हुआ और इसके माध्यम से भारत को संसदीय प्रणाली की सरकार वाला एक प्रभुतासंपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया। लंबी विदेशी दासता के बाद केवल आजादी प्राप्त करना पर्याप्त नहींथा। स्वतंत्र भारत अब किस तरह आगे बढ़े, इसकी विविधतापूर्ण संस्कृति को अक्षुण्ण कैसे रखा जाए, विभिन्न धर्मावलंबी, धर्म के दायरों से परे देश के नागरिक के रूप में एकजुट होकर कैसे रहें, महिलाओं को किस तरह अधिकारसंपन्न बनाया जाए, दलितों, पिछड़े वर्गों, विभिन्न जनजातियों के लिए कौन सी व्यवस्थाएं की जाएं कि सदियों से दमित इन वर्गों को समाज में बराबरी मिल सके, अल्पसंख्यकों के धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक अधिकारों की सुरक्षा कैसे हो, लोकतंत्र को निर्वाचन प्रक्रिया के जरिए मजबूत कैसे बनाया जाए, राज्यों व केेंद्र के बीच संबंध कैसे हों कि सत्ता का अधिकाधिक विकेन्द्रीकरण हो और किसी किस्म की तानाशाही कायम न हो, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच कार्य का बंटवारा कैसे हो कि कोई अंग किसी दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण न करे, दो विश्वयुद्ध देख चुकी दुनिया में जब वर्चस्व कायम करने की लड़ाई शक्तिसंपन्न देशों के बीच हो रही हो, तब भारत विश्वशांति में अपनी भूमिका संविधान के जरिए कैसे निभा सकता है, ऐसे तमाम पहलुओं पर संविधानसभा ने अनेकानेक बैठकेें की। विचार-विमर्श के दौरान स्वाभाविक रूप से मतभेद भी उभरे, तीखी बहसें हुई और व्यक्तिगत नहींबल्कि देशहित को सर्वोपरि रखते हुए इन मतभेदों को लोकतांत्रिक तरीके से ही सुलझाया गया। संविधान सभा की इस कड़ी मेहनत, निषपक्ष रवैये का ही प्रभाव था कि भारत को एक सुंदर रूप मिल सका। ऐसा लोकतांत्रिक रूप जो दुनिया के लिए मिसाल बना कि किस तरह विविध धार्मिक, जातीय,  सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक वर्ग होते हुए भी हम एकजुट होकर रह सकते हैं, जिसमें सबके लिए समान अधिकार हैं, समान कत्र्तव्य हैं। आज जब सबका साथ, सबका विकास जैसे नारे जोर से उछाले जाते हैं तो लय, ताल, सुर में कर्णप्रिय होने के बावजूद यह ध्यान देना जरूरी है कि कहींइससे देश का राग तो नहींबिगड़ रहा। सत्ता का बदलाव स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है, लेकिन इस बदलाव में देश की मूलभूत व्यवस्थाएं, संविधान की भावनाएं न बदलें, यह ध्यान रखना हर सत्ताधारी का परम कत्र्तव्य होना चाहिए। सत्ता पर काबिज होने से पहले संविधान की ही शपथ ली जाती है, ठीक उसी तरह जैसे नया काम करने से पहले बड़े-बुजुर्गाें का आशीर्वाद लिया जाता है। लेकिन बाद में उनकी बातों, सलाहों को अनसुना किया जाता है, न उनकी किसी को जरूरत होती है, न उनकी राय-मशविरे की। आज संविधान को हमने मात्र एक किताब की तरह इसी तरह कोने में रख दिया है, जिसमें वर्णित बातों को याद करने की हम जरूरत नहींसमझते। इसलिए कभी हिंदू राष्ट्र बनाने की बात उठती है, कभी अधिकाधिक बच्चे पैदा करने की सलाह दी जाती है, कभी धर्मातंरण और घरवापसी को सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बनाया जाता है। आर्थिक विकास देश के लिए जरूरी है, पर इसे सर्वोपरि रखने से मुट्ठी भर लोगों का लाभ और एक बड़े वर्ग के अधिकारों पर चोट पड़ती है, तो फिर यह सत्ताधीशों को सोचना होगा कि देश में विकास किस कीमत पर होना चाहिए। संविधान देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, फिर गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की बात क्यों उठी? इस तरह की सोच से क्षणिक राजनीतिक लाभ हासिल हो सकता है, भावनात्मक स्तर पर अच्छा लग सकता है, किंतु इतने बड़े देश पर इस बात से क्या असर पड़ता है, यह भी सोचना चाहिए। 66वां गणतंत्र दिवस भारत के बदले हुए राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, वैदेशिक माहौल में मनाया जा रहा है। इस मौके पर जनता का कत्र्तव्य है कि वह अपने संविधान को सेवानिवृत्ति पर न भेजे, बल्कि उसे और सक्रिय बनाए। उसकी उपेक्षा न करे, उसके बताए रास्तों पर चले। उसे सजावटी वस्तु की तरह बंद कर न रखे, बल्कि उसे खोले और उसका पाठ करे। संविधान ने भारत की जनता को अधिकार संपन्न बनाया है, उनका ही उपयोग करते हुए हम भारत को मजबूत बनाए। गणतंत्र दिवस का असली उत्सव तब ही संपन्न होगा।

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