भारत के नागरिक होकर भी मत देने के अधिकार से वंचितजम्मू ! आजादी की हर वर्षगांठ और सफल चुनाव के साथ भारतीय लोक तंत्र की जडें़ जितनी गहरी होती जाती हैं, विभाजन के बाद अपने प्राण और धर्म की रक्षा के लिए पाकिस्तान से जम्मू कश्मीर आकर बसे रिफ्यूजियों के घाव उतने ही गहरे होकर नासूर बनते जाते हैं। निहायत ही कंगाली और गुरबत में जीवन बसर कर रहे इन साढ़े 18 हजार परिवारों की विडंबना यह है कि ये भारत के नागरिक हैं तो लेकिन स्टेट सब्जेक्ट न होने के कारण आजादी के 67 वर्षों बाद भी उन्हें विधानसभा, पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनावों में वोट देने का हक नहीं मिला है।राज्य विधानसभा के इस वर्ष के अंत में प्रस्तावित चुनाव यानी लोकतंत्र के पर्व में शामिल होने के लिए जहां हर नागरिक बढ़चढ़कर हिस्सा ले रहा है वहीं मतदान के अधिकार से वंचित ये रिफ्यूजी आजादी के बाद के उस क्षण को कोस रहे हैं जब उन्होंने इस राज्य में बसने का फैसला किया था। पाकिस्तान से आकर देश के अन्य हिस्सों में बस गए लोग हर तरह के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के साथ शान से रह रहे हैं। उनमें से इंदौर कुमार गुजराल, डा. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण अडवानी जैसे लोग प्रधानमंत्री और उपप्रधानमंत्री जैसे शीर्ष पदों पर पहुंच गए लेकिन इस सीमावर्ती राज्य में बसे लोग दासों जैसा जीवन बिता रहे हैं। इन रिफ्यूजियों पर मुसीबत की मार इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि इनमें से अधिकांश अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं और वे राज्य में अल्पसंख्यक हैं। राज्य के 15 विधानसभा क्षेत्रों में बसे करीब 55 हजार मतदाताओं की संख्या में इन रिफ्यूजियों के संगठन वेस्ट पाकिस्तानी रिफ्यूजी ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पिछले हफ्ते सौंपे ज्ञापन में कहा कि वे राज्य में जमीन नहीं खरीद हो सकते। उनके बच्चों को राज्य के तकनीकी और प्रोफेशनल कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिल सकता और चतुर्थ श्रेणी तक के कर्मचारी की नौकरी नहीं मिल सकती। ज्ञापन के अनुसार, राज्य सरकार बाहरी बताकर उन्हें एससी और ओबीसी का प्रमाणपत्र जारी नहीं करती जिससे वे केंद्र की योजनाओं के लाभ से भी वंचित रह जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार ने समय-समय पर उनके हित में कई फैसले किए लेकिन राज्य सरकारों ने उन्हें लागू नहीं किया। इन रिफ्यूजियों की शिकायत यह है कि वे 1947 में आकर यहां बसे थे और राज्य का संविधान इसके दस वर्ष बाद 1957 में लागू हुआ था।