पाकिस्तान की दिल दहलाने वाली आतंकी वारदात ने शांतिप्रिय विश्व की कामना करने वालों के समक्ष एक कठिन चुनौती पेश कर दी है। यह अजीब विडंबना है कि पाकिस्तान की बच्ची मलाला को नोबेल शांति पुरस्कार मिलने के सप्ताह भर बाद ही उसके देश में स्कूली बच्चों को आतंकियों ने अपना निशाना बनाया। पाकिस्तान में जो घटना घटी, वैसी ही घटना पहले रूस के बिसलान शहर के एक स्कूल में 2004 में घटी थी। चेचेन विद्रोहियों ने स्कूल में घुसकर एक हजार से अधिक लोगों को बंधक बना लिया था, दो दिन तक उनसे मुठभेड़ के बाद आतंकियों को परास्त किया गया था। तब लगभग 330 बच्चे मारे गए थे। इस घटना के 10 साल बाद आतंकियों ने फिर मासूम बच्चों पर गोलियां बरसाईं हैं। यूं कोई भी आतंकी घटना मानवता के नाम पर कलंक ही होती है, लेकिन इस ताजा घटना ने दरिंदगी का ऐसा उदाहरण पेश किया, जिससे उबरने में न जाने कितना वक्त लगे। जो बच्चे स्कूल में पढऩे, शरारतें करने और भावी जीवन की कल्पना करने में मसरूफ रहते थे, अब उनके सपनों में भी गोलियों की गूंज, खून के छीटें रहेंगे। अपने साथियों को, शिक्षकों को अपनी आंखों के सामने उन्होंंने मरते देखा है। एक घायल बच्चे का बयान था- हमें हमारे टीचर बचाकर ले जा रहे थे, कारीडोर में हमने बहुत से दूसरे बच्चों को लेटे देखा, बाद में पता चला वे उनकी लाशें थीं। एक अन्य बच्चे का कहना है- मैं बड़े होकर सभी आतंकवादियों को मार दूंगा। उन्होंने मेरे भाई को मार दिया है। एक रोती हुई मां का कहना था कि जैसी हमारी गोद उजड़ी, वैसे किसी की न उजड़े। एक मृत बच्चे की मां ने कहा- मेरे बच्चे को नकली बंदूक से भी डर लगता था, असली बंदूक देखकर न जाने उस पर क्या बीती होगी। एकघायल बच्चा लगातार चिल्ला रहा है कि मुझे बचा लो, वे फिर आएंगे और हमें मार डालेंगे। मृतकों के परिजनों और पीडि़तों के ऐसे ढेरों बयान लगातार मीडिया में, सोशल नेटवर्किंग साइट्स में आ रहे हैं, जिन्हें पढ़कर ही कलेजा मुंह को आ जाता है। जिन पर दुख का यह पहाड़ टूटा है, न जाने उनकी मनोदशा कैसी होगी, नामालूम वे कब तक इस दर्द से उबर पाएंगे या जीवन भर इस दुख के साथ ही रहेंगे। यह समय सारी कटुता, मतविभिन्नता भूलकर पाकिस्तान के साथ उसके दुख में खड़ा होने का है। इस लिहाज से भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से बात कर, सांत्वना देकर सही कदम उठाया है। भारत मेंंभी आतंकी हमले के खतरे कम नहींहैं। यूं मुंबई हमलों के बाद से भारत में सुरक्षा और सतर्कता को लेकर सरकारी, प्रशासनिक रवैये में काफी बदलाव आया है, फिर भी इनमें मौजूद कुछ कमजोर कडिय़ों का लाभ उठाने के फेर में आतंकी रहते हैं। सबसे बड़ी कमजोरी आतंकवाद से निपटने में राज्य सरकारों व केेंद्र के बीच तालमेल की कमी है। इसी का नतीजा है कि आज तक राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केेंद्र का गठन नहींहो पाया। राज्योंं की पुलिस, खुफिया विभाग व सुरक्षा एजेंसियों के बीच समन्वय का अभाव समय-समय पर उजागर होता है। यही कारण है कि जब कोई आतंकी घटना होती है तो सब एक-दूसरे पर दोष मढऩे लग जाते हैं। मौजूदा राजनीतिक हालात भी ऐसे हैं, जिसमें धर्म के नाम पर बढ़ते वैमनस्य का फायदा उठाने के लिए आतंकी तत्व तैयार बैठे हैं। इराक के आईएसआईएस में शामिल होने के लिए भारत से कुछ युवाओं का वहां जाना, बैंगलोर में एक साफ्टवेयर इंजीनियर द्वारा आईएसआईएस के लिए ट्विटर एकाऊंट खोलना यह दर्शाता है कि होनहार युवाओं को दिग्भ्रमित करने वाली परिस्थितियां यहां निर्मित हो रही हैं, जिसे रोकना समाज और हर राजनीतिक दल का कर्तव्य है। लेकिन फिलहाल तो धर्म के नाम पर ऊटपटांग बयान देने में लोग लगे हैं। आगरा में धर्मांतरण और उसके बाद उस पर की जा रही राजनीति इसका प्रमाण है। गनीमत यह है कि 25 दिसंबर को अलीगढ़ में घोषित धर्मांतरण का कार्यक्रम रोक दिया गया है। भाजपा और संघ के कार्यकर्ता, नेता हिंदुत्व के नाम पर भरपूर आग उगल रहे हैं। अब कांग्रेस नेता नारायण राणे के बेटे नीलेश राणे ने यह कह दिया कि सिडनी जैसी घटनाओं को रोकने के लिए अधिक से अधिक लोगों को हिंदू बनाना चाहिए। यह बयान निंदनीय है और नीलेश राणे की अज्ञानता, अपरिपक्वता का परिचायक भी। आतंकवाद का मुकाबला केवल इंसानियत का धर्म ही कर सकता है। विश्व को इस वक्त इसी धर्म की राह पर चलना होगा।