लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता की असली ताकत बहुमत में ही है। प्रदेश के कई प्रमुख नगर निगमों में पिछली बार जनता ने मेयर तो कांग्रेस का चुना, लेकिन पार्षदों को चुनाव में बहुमत भाजपा को दे दिया। इस तरह पूरे पांच साल तक नगर निगम राजनीति का अखाड़ा बने रहे। बिलासपुर की मेयर वाणी राव को तो आखिरी सामान्य सभा में यहां तक कहना पड़ा कि उन्हें इन 5 वर्षों में मलाल ही रह गया कि वे शहर के लिए कुछ नहीं कर सकीं। जिन नगर निगमों में जनता ने मेयर और पार्षदों के चुनाव में विभाजित जनादेश दिया था, वहां के मेयर के मन में ऐसी ही कसक हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। भाजपा राज्य की सत्ता में ही नहीं थी बल्कि इसी बीच उसने सत्ता की हैट्रिक भी लगाई। समझा जा सकता है कि उसकी सरकारी मशीनरी पर कितनी गहरी पैठ होगी। कहा तो यह जाता है कि सरकार के काम नियम-कानून से बंधे होते हैं पर सत्ता की राजनीति में ऐसे नियम कानूनों की अधिक परवाह भी नहीं की जाती, यह भी एक सच्चाई है। आम जनता इसे परखना अच्छी तरह जानती है। उसे मेयर पद के कांग्रेस उम्मीदवार में अधिक योग्यता, क्षमता दिखाई दी और चुनकर भेज दिया। वह बहुमत का गणित नहीं देख पाई और मेयर में सारी शक्तियां देखकर अपनी आकांक्षाओं के सपने सजा लिए। इसमें कुछ गलत भी नहीं था बशर्तें निर्णय नियम-कानून के आधार पर हों। बहुमत का यह आशय कतई नहीं है कि उसे मनमानी करने का अधिकार मिल जाता है। फैसले गुण-दोष के आधार पर हों तो विभाजित जनादेश वाली व्यवस्था भी कामकाज में रोड़ा नहीं बन सकती लेकिन मेयर वाणी राव के मलाल से तो यही जाहिर होता है कि व्यवस्था चलाने की आदर्श स्थितियां बन ही नहीं पायीं। यह कोई सवाल नहीं है कि बिलासपुर नगर निगम को 5 साल तक फिर कौन चलाता रहा क्योंकि सभी जानते हैं कि राज्य सत्ता का केन्द्र इस शहर में कहां और किसमें है? शहर में जो कुछ हुआ और जो कुछ नहीं हुआ उसका सारा श्रेय राज्य सत्ता के इसी केन्द्र को है। यह जनता के लिए एक सबक भी है और संदेश भी कि अगली बार मेयर, पार्षद चुनते समय उसे क्या करना चाहिए। एक ऐसी व्यवस्था कायम होनी चाहिए, जिसमें जनता की इच्छा का सम्मान हो। एक मेयर को लगता है कि जनता की उम्मीदों, आकांक्षाओं को पूरा करने की परिस्थितियां उसके लिए नहीं है तो उसे या पद छोड़ देने का साहस भी दिखाना चाहिए। कांग्रेस के किसी मेयर ने ऐसा नहीं किया। अलबत्ता यह शिकायत जरुर रही कि उन्हें काम करने नहीं दिया गया। कहा जाता है कि अनुभव सबसे बड़ा शिक्षक होता है। नगरीय निकायों की सत्ता ने जो कुछ सिखाया है वह सीख ही व्यवस्था में बदलाव का आधार बनेगी, इसे नकारा नहीं जा सकता।