• हांगकांग में आंदोलन

    लोकतंत्र की स्थापना और मजबूती के लिए पिछले तीन सालों से कई अरब देशों में संघर्ष चल रहा है। पूरा विश्व इस संघर्ष का साक्षी है। अब भारत के पड़ोसी हांगकांग में भी कुछ ऐसा ही आंदोलन देखने मिल रहा है। 1997 तक हांगकांग ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था, इसके बाद एक समझौते के तहत चीन का प्रभुत्व इस द्वीप पर स्थापित हुआ। ...

    लोकतंत्र की स्थापना और मजबूती के लिए पिछले तीन सालों से कई अरब देशों में संघर्ष चल रहा है। पूरा विश्व इस संघर्ष का साक्षी है। अब भारत के पड़ोसी हांगकांग में भी कुछ ऐसा ही आंदोलन देखने मिल रहा है। 1997 तक हांगकांग ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था, इसके बाद एक समझौते के तहत चीन का प्रभुत्व इस द्वीप पर स्थापित हुआ। आर्थिक रूप से सशक्त हांगकांग का चीन में विलय एक राज्य, दो शासन प्रणालियों के सिद्धांत पर हुआ था, अर्थात यहां के प्रशासक अपने तरीके से काम करने के लिए स्वतंत्र थे, चीन की ओर से उसमें कोई दखलंदाजी नहींथी। लेकिन अब चीन के इरादे बदलते दिख रहे हैं। उसने पिछले महीने हांगकांग के नेता के लिए होने वाले चुनाव में उम्मीदवारों के खुले चयन पर रोक लगा दी है। पहले सभी उम्मीदवारों का नामांकन खुला रहता था, लेकिन चीन ने चालाकी दिखाते हुए यह व्यवस्था खत्म कर दी और अब नेता पद के लिए नामांकन भी गोपनीय रहेंगे। चीन के इस कदम पर हांगकांग की जनता, विशेषकर छात्रों को विशेष आपत्ति है, इसलिए पिछले कुछ दिनों से वहां आंदोलन छिड़ गया है, जो दिन ब दिन उग्र होता जा रहा है। आंदोलन के इस तात्कालिक कारण के अलावा चीन की सरकार की ओर से लिए गए कुछ और निर्णयों से भी छात्र खफा है। मसलन, 2012 में हांगकांग में इतिहास का नया पाठ्यक्रम पढ़ाने के लिए चीन की ओर से निर्देश दिए गए, इसे तथाकथित राष्ट्रवादी इतिहास बताया गया, जिसे चीन की मर्जी के मुताबिक काट-छांट के साथ तैयार किया गया था। हांगकांग की स्कूलों में इस पर काफी रोष था। इसी तरह जुलाई में चीन की ओर से जारी एक श्वेतपत्र में यह बताया गया कि हांगकांग में नागरिक अधिकार स्वाभाविक तौर पर उन्हें नहींमिले हैं, बल्कि चीन की सरकार की मेहरबानी से यह हासिल हुए हैं। इन तमाम कारणों से आंदोलन में अधिकाधिक लोग जुड़ गए। आकुपाई सेंट्रल अर्थात केेंद्र पर कब्जा नामक इस आंदोलन के तहत हजारों लोग सड़कों पर उतर आए हैं। कई दिनों से सड़कों पर डटे लोगों के लिए कोई खाने-पीने का इंतजाम कर रहा है, तो कोई पालियों में आंदोलन करने के लिए आवाजाही कर रहे हैं। बहुत से छात्र आंदोलन से वक्त निकालकर किनारे बैठे अपना गृहकार्य और पढ़ाई भी कर रहे हैं। इन सबकी एक ही मांग है कि 2017 में पूरी तरह लोकतांत्रिक चुनाव हों, जबकि चीनी सरकार इसके लिए तैयार नहींहै। प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस और बल प्रयोग किए जा रहे हैं, उन्हें डराया जा रहा है, दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया गया है, लेकिन वे पीछे नहींहट रहे हैं। ऑकुपाई सेंट्रल आंदोलन के सह संस्थापक थाई का कहना है कि उनका मकसद हांगकांग के आर्थिक केंद्र की गतिविधियों रोक देना है। अगर वे अपने उद्देश्य में सफल होते हैं तो इसके दूरगामी प्रभाव चीन के अर्थतंत्र पर पड़ेंगे, साथ ही अंतरराष्ट्रीय कारोबार पर भी इसका असर पड़ेगा, क्योंकि हांगकांग में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियोंंके दफ्तर हैं। भारत भी इससे अछूता नहींरहेगा। अमरीका और ब्रिटेन ने आकुपाई सेंट्रल आंदोलन का समर्थन किया है। व्हाइट हाउस के प्रवक्ता जोश एर्नेस्ट ने कहा, दुनिया भर में, हांगकांग में भी और अन्य जगहों पर भी, अमरीका शांतिपूर्ण तरीके से जमा होने और अभिव्यक्ति की स्वंत्रता जैसी बुनियादी आज़ादियों का समर्थन करता है। ब्रिटेन ने भी क़ानून की सीमा में रह कर प्रदर्शन करने के अधिकारों की पैरवी की है। लेकिन चीन सरकार इन प्रदर्शनों को ग़ैरकानूनी बता रही है और उसने अन्य देशों को चेतावनी दी है कि वो इनका समर्थन न करें। चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने कहा, हांगकांग पूरी तरह हमारा आंतरिक मामला है हम क़तई नहीं चाहते कि कोई भी देश किसी भी तरह हमारे आंतरिक मामलों में दखल दे और ऑकुपाई सेंट्रल जैसी गैरकानूनी गतिविधियों का समर्थन करे। अरब देशों समेत विश्व के कई देशों में अमरीका, ब्रिटेन आदि ने किसी न किसी बहाने दखलंदाजी की ही, लेकिन हांगकांग में लोकतंत्र की बहाली के नाम पर वे सीधा दखल शायद ही दें, क्योंकि यहां सीधे-सीधे व्यापारिक हित जुड़े हैं और टकराव सीधे चीन से है। भारत की ओर से अब तक कोई प्रतिक्रिया इस प्रकरण पर सुनने नहींमिली है, फिलहाल सबका पूरा ध्यान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमरीका यात्रा पर है। चीन के आंतरिक मामलों में भारत बेशक कोई दखल न दे, किंतु पड़ोस में पूर्ण लोकतंत्र हासिल करने के लिए चल रहे संघर्ष पर अपनी प्रतिक्रिया मोदी सरकार को व्यक्त करना चाहिए।

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