• सब मिलकर गरबा करें

    राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सातवें वार्षिक व्याख्यान में न्यायमूर्ति फली एस नरीमन ने कहा कि हिंदुत्व अपनी पारंपरिक सहिष्णुता खो रहा है। उनके मुताबिक इसकी जड़ में एक खास हिंदू तबका है जिसका मानना है कि वे अपने धार्मिक विश्वास के कारण सत्ता में आए हैं। उन्होंने यह चिंता भी व्यक्त की कि ऊपर बैठे लोगों की तरफ से इसका कोई विरोध भी नहींकिया जा रहा है। ...

    राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सातवें वार्षिक व्याख्यान में न्यायमूर्ति फली एस नरीमन ने कहा कि हिंदुत्व अपनी पारंपरिक सहिष्णुता खो रहा है। उनके मुताबिक इसकी जड़ में एक खास हिंदू तबका है जिसका मानना है कि वे अपने धार्मिक विश्वास के कारण सत्ता में आए हैं। उन्होंने यह चिंता भी व्यक्त की कि ऊपर बैठे लोगों की तरफ से इसका कोई विरोध भी नहींकिया जा रहा है। श्री नरीमन के इन कथनों पर कोई दो राय नहींहो सकती। क्योंकि इस वक्त देश में जिस तरह का धार्मिक, सांप्रदायिक माहौल बन रहा है, उसका ही संक्षिप्त जिक्र उन्होंने किया। यह सचमुच चिंतनीय है कि जो हिंदू धर्म सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखता है, उसके कुछ स्वयंभू ठेकेदार उसे शेष धर्मों से अलग-थलग करने पर तुले हुए हैं। आम चुनावों में भाजपा को बहुमत मिलने के बाद यह प्रवृत्ति कुछ अधिक बढ़ गई है और बिना झिझक या लिहाज के हिंदुत्व के ठेकेदार असहिष्णुता से भरे फरमान जारी किए जा रहे हैं। बिहार मेंंगिरिराज सिंह से लेकर उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ जैसे नेता भाजपा में बढ़त हासिल कर रहे हैं। प्रवीण तोगडिय़ा और अशोक सिंघल जैसे लोग तो पहले ही उन्मादी बयानों के लिए कुख्यात रहे हैं। यह दायरा क्रमश: बढ़ता जा रहा है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हिंदूू धर्म, हिंदुत्व, सनातन धर्म का राग जो जितने ऊंचे स्वर में अलाप सकेगा और अपने बयानों से अल्पसंख्यकों को अलग-थलग होने का एहसास करवा सकेगा, उसे उतना अधिक केन्द्रीय सत्ता के निकट पहुंचने का अवसर मिलेगा और इस वक्त देश के कर्णधार बने लोगों की नजर में वह ऊंचा उठेगा। धार्मिक उन्मादों से भरे एक के बाद दूसरे बयान सामने आ रहे हैं और समूचा समाज उन्हें लगभग असहाय भाव से सुन रहा है कि कोई ऐसा कह रहा है तो इसमें हम कर ही क्या सकते हैं? यह कुछ वैसी ही स्थिति है कि अंग्रेज व्यापारी बन कर आए और एक के बाद एक राजाओं को एक-दूसरे के खिलाफ खड़े कर पूरे भारत को अपना गुलाम बना चले और तब अधिसंख्य लोग यही कहते रहे कि वे ऐसा कर रहे हैं तो हम क्या कर सकते हैं? हाथ पर हाथ धरे रहने की इस लाचारी को पूरे देश ने दो सदियांतक भुगता। उसके बाद 90 के दशक में व्यापारियों की एक और चाल आर्थिक उदारीकरण के रूप में हमारे सामने आयी। तब से अब तक हम वैश्वीकरण के लाभालाभ से दो-चार हो रहे हैं, यह कहते हुए कि हम कर ही क्या सकते हैं? व्यापारियों के बाद अब धर्म के खिलाडिय़ों की बारी है। ताजा प्रकरण मध्यप्रदेश में भाजपा की विधायक और पार्टी की उपाध्यक्ष ऊषा ठाकुर व गुजरात में प्रवीण तोगडिय़ा के गरबा संबंधी बयान हैं, जिसमें गरबा स्थलों पर मुसलमानों के प्रवेश को रोकने की बात कही गई है। शारदीय नवरात्रि महोत्सव का मुख्य आकर्षण गरबा होता है। गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में गरबे की धूम देखने लायक होती है। विगत कुछ वर्षों से इस धार्मिक, सांस्कृतिक आयोजन का पर्याप्त व्यावसायीकरण हुआ। बड़े-बड़े मैदानों मेंंनौ रातों तक गरबा करने सैकड़ों की संख्या में लोग पहुंचते हैं, विशेषकर युवक-युवतियों में विशेष उत्साह देखने मिलता है। इसे उनकी उम्र का तकाजा मानना चाहिए। जो युवा बड़े शहरों के महंगे डिस्को-थेक नहींजा पाते, सबके साथ नाचने की उनकी साध इस तरह पूरी हो जाती है। फिल्मों, धारावाहिकों में डिस्को डांडिया से लेकर ढम-ढम ढोल बाजे और हे शुभारंभ जैसे गीतों ने गरबा के लिए खूब माहौल बनाया। अब गरबा आयोजनों में फिल्म और टेलीविजन की हस्तियां पहुंचती हैं। अमूमन उद्घाटन किसी राजनेता से कराया जाता है। कई प्रायोजक ऐसे कार्यक्रमों के लिए जुटाए जाते हैं और 9 दिनों का यह उत्सव धर्म के साथ-साथ व्यावसायिक हितों की पूर्ति करते दिखता है। इतने बरसों में कभी यह सुनने नहींमिला कि गरबा करने का अधिकार केवल हिन्दुओं के लिए आरक्षित रखा जाए और मुसलमानों को इससे दूर किया जाए। हां, यह अवश्य सुनने मिला है कि किसी मुसलमान ने नौ दिन का व्रत रखा, बिल्कुल उसी तरह जैसे हिंदू मुसलमानों की इफ्तार की दावत और ईद के जश्न में शामिल होते हैं, क्रिसमस और नए साल का उत्सव मनाते हैं। बहरहाल, कोई किसी धर्म माने या धार्मिक मान्यताओं का पालन करे, यह बिल्कुल निजी मामला और अधिकार होना चाहिए। लेकिन अगर एक धर्म का होते हुए वह दूसरे धर्म के त्योहारों, उत्सवों का आनंद ले, तो उसे रोकने की कोशिश करना अनैतिक ही नहींगैरकानूनी, असंवैधानिक भी मानना चाहिए। ऊषा ठाकुर और प्रवीण तोगडिय़ा गरबा स्थलों में मुसलमानों के प्रवेश को रोकने का फरमान जारी करते हैं, लेकिन क्या वे नवरात्रि के कलश से लेकर डांडिया, देवी दुर्गा की प्रतिमा और पोशाकों व कलाई पर बंधने वाली मौली के बारे में भी यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि इसे किसी मुसलमान ने नहींबनाया है। उनकी ऐसी सोच पर तरस आता है, लेकिन हम कर ही क्या सकते हैं, ऐसा विचार हमें बिल्कुल नहींलाना चाहिए। नवरात्रि निकट है, उम्मीद है बहुसंख्यक समाज अपनी पूर्ववत उदारता का परिचय फिर दर्शाएगा।

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