• प्रो.विपिन चंद्रा का निधन

    एक ऐसे वक्त में जब अस्मिता के छद्म पहलुओं को प्रमुख बनाने की साजिशें रची जा रही हैं, पहचान के संकट की आड़ में हिंदुत्व का झंडा ऊंचा किया जा रहा है, अपने एजेंडे को बढ़ाने के लिए इतिहास के पुनर्लेखन पर बल दिया जा रहा है, उस वक्त सांप्रदायिकता के खिलाफ खुलकर धर्मनिरपेक्षता पर लिखने, बोलने वाले इतिहासकार प्रो.विपिन चंद्रा का निधन अपूरणीय क्षति है। ...

    एक ऐसे वक्त में जब अस्मिता के छद्म पहलुओं को प्रमुख बनाने की साजिशें रची जा रही हैं, पहचान के संकट की आड़ में हिंदुत्व का झंडा ऊंचा किया जा रहा है, अपने एजेंडे को बढ़ाने के लिए इतिहास के पुनर्लेखन पर बल दिया जा रहा है, उस वक्त सांप्रदायिकता के खिलाफ खुलकर धर्मनिरपेक्षता पर लिखने, बोलने वाले इतिहासकार प्रो.विपिन चंद्रा का निधन अपूरणीय क्षति है। पिछले तीन महीनों में भारत की जनता ने अनेक बार इस बात को महसूस किया है कि देश की प्रमुख समस्याओं के बरक्स अचानक पहचान का प्रश्न खड़ा किया जा रहा है। हम हिन्दी हैं या हिन्दू हैं, हिन्दू शब्द कैसे भारतीयों के लिए पूरे विश्व में इस्तेमाल किया जाता है, इस देश का हर नागरिक चाहे वह मुस्लिम हो या ईसाई या पारसी, उसे हिन्दू ही कहा जाएगा, भारत हिन्दुस्तान क्यों कहलाता है, ऐसे सवालों पर घंटो बहसें चल रही हैं। इस बहस का कोई निष्कर्ष निकल कर सामने नहींआ रहा। क्योंकि जो लोग इतिहास के तथ्यों व तर्कों पर बात कर रहे हैं, संविधान का हवाला दे रहे हैं कि इसमें देश के लिए इंडिया दैट इज़ भारत का इस्तेमाल हुआ है, हिंदू एक धर्म विशेष के लोगों की पहचान है और भारत के नागरिक हिंदू नहींभारतीय कहलाते हैं, उनकी बातों को पूर्वाग्रह से ग्रसित ठहराया जा रहा है। जबकि भारत हिंदुस्तान क्यों है? यहां के हर बाशिंदे को हिंदू क्यों कहलाना चाहिए? ऐसे फिजूल के मुद्दे उठाने वाले किस मानसिकता का पोषण कर रहे हैं, इस पर सवाल नहींउठ रहे। हम संविधान को मानें या धार्मिक किताबों में जो लिखा है, उसका पालन करें? अगर ऐसा हुआ तो भारत की धर्मनिरपेक्ष, बहुलतावादी संस्कृति और परंपरा कैसे बरकरार रहेगी? धार्मिक खेमेबाजी में अगर इतिहास का बंटवारा हुआ तो उसका निष्पक्ष विश्लेषण कैसे किया जा सकता है? ऐसे कुछ गंभीर प्रश्न देश की बहुसंख्यक जनता, नौजवान पीढ़ी और भावी संतानों के समक्ष खड़े हुए हैं, जिनका हल तलाशने में प्रो.चंद्रा जैसे तर्कशील, प्रगतिशील इतिहासकारों की जरूरत बनी रहेगी। प्रो.चंद्रा के लिए इतिहास केवल अध्ययन, अध्यापन का विषय नहींथा, बल्कि वे उसके लेखन, पठन-पाठन, तार्किक विश्लेषण के जरिए वर्तमान की गलतियों को उजागर करते थे, भविष्य की बेहतरी के लिए राह दिखाते थे। खेद है कि कुछ संकुचित मानसिकता के लोगों ने उन्हें कांग्रेस का पक्षधर ठहराने की कोशिश की। जबकि सत्य यह है कि वे भारत की धर्मनिरपेक्ष संस्कृति के पक्षधर थे और आजीवन एक इतिहासकार के रूप में उसकी व्याख्या ही करते रहे। उनका मानना था कि जिस देश के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने लड़ाई लड़ी उसमें हिंदू राष्ट्र की कोई जगह नहीं थी, विभाजन के बाद पाकिस्तान धर्म के आधार पर इस्लामी देश बना, जबकि इसके ठीक विपरीत भारत धर्मनिरपेक्षता, बहुलतावाद, लोकतंत्र की बुनियाद पर बना और ये हमारे संविधान में निहित है। खालिस्तान आंदोलन के खिलाफ सबसे बड़ी आवाज प्रो.चंद्रा ने ही उठाई थी और उन्होंने इसे हिन्दू व सिखों को बांटने वाली सांप्रदायिकता करार दिया था। एनडीए की पहली सरकार जब सत्ता में आई थी तो उन्होंने एक दिल्ली हिस्टोरियन ग्रुप बनाया था जिसमें उनकी जैसी विचारधारा के इतिहासकार शामिल थे। उस समय एनसीईआरटी की किताबों में जो छेड़-छाड़ हो रही थी, उस पर अलग-अलग पहलुओं पर किताबें, पर्चे निकाले और ढेरों सेमिनार किए। उन्होंने इतिहास पर लगभग 20 किताबें लिखीं, जिनका फलक काफी व्यापक है। भारत के स्वाधीनता संग्राम से लेकर आधुनिक भारत का निर्माण, आर्थिक इतिहास, सांप्रदायिकता, वामपंथ, जेपी आंदोलन, आपातकाल आदि विषयों पर उनकी पुस्तकेें सुपठित, बहुचर्चित रहीं। भगतसिंह की जीवनी और उनकी स्वयं की आत्मकथा वे लिख रहे थे, किंतु उनके जीवन में ये प्रकाशित न हो सकीं। प्रो.चंद्रा के निधन के बाद इतिहास जैसे संभाल कर लिखे जाने वाले विषय को और संभालने की जिम्मेदारी बढ़ गई है।

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