• विशेष संपादकीय :मंतूराम पवार की नाम वापसी

    छत्तीसगढ़ की अंतागढ़ विधानसभा सीट के उपचुनाव के पहले कांग्रेस प्रत्याशी मंतूराम पवार द्वारा नाम वापस लिए जाने से कांग्रेस के सामने शर्मिंदगी की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस उपचुनाव में कांग्रेस के अलावा जो अन्य उम्मीदवार खड़े थे, वे पहले ही किसी खास स्थिति में नहींथे, इस तरह भाजपा के उम्मीदवार भोजराम नाग का विरोध नाममात्र का ही रह गया है और उनकी जीत सुनिश्चित है। ...

    छत्तीसगढ़ की अंतागढ़ विधानसभा सीट के उपचुनाव के पहले कांग्रेस प्रत्याशी मंतूराम पवार द्वारा नाम वापस लिए जाने से कांग्रेस के सामने शर्मिंदगी की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस उपचुनाव में कांग्रेस के अलावा जो अन्य उम्मीदवार खड़े थे, वे पहले ही किसी खास स्थिति में नहींथे, इस तरह भाजपा के उम्मीदवार भोजराम नाग का विरोध नाममात्र का ही रह गया है और उनकी जीत सुनिश्चित है। मंतूराम पवार की नाम वापसी का पहला आरोप स्वाभाविक तौर पर भाजपा पर कांग्रेस ने लगाया। मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह पर कांग्रेसी दोष लगा रहे हैं, उनका पुतला दहन करने की भी योजना बनाई जा रही है। कांग्रेस का विरोध अपनी जगह सही है, लेकिन कहींन कहींकांग्रेस के लोग यह जानते हैं और मानते हैं कि इस घटनाक्रम के पीछे भाजपा से ज्यादा स्वयं उनकी आपसी गुटबाजी है। दरअसल छत्तीसगढ़ गठन के वक्त से ही कांग्रेस गुटबाजी और भितरघात का शिकार हो रही है। जब मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ बनाने की घोषणा हुई, तब पार्टी में तीन गुट अपना वर्चस्व साबित करने में लगे थे। एक विद्याचरण शुक्ल गुट, दूसरा दिग्विजय सिंह का गुट और तीसरा गुट था प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने अजीत जोगी का, जो खुलकर नहीं, वरन पर्दे के पीछे से काम कर रहा था। इस त्रिकोण में चौथा कोण मोतीलाल वोरा गुट का भी जोड़ सकते हैं। इसके अलावा कुछ कांग्रेसी अर्जुन सिंह के खेमे के भी थे, लेकिन अंतत: उनकी आस्था दिग्विजय सिंह के साथ ही रही। नवनिर्मित प्रदेश में कांग्रेस के ये तमाम गुट एक-दूसरे को पीछे खींच स्वयं आगे बढऩे की होड़ में लगे रहे। राज्य निर्माण के वक्त सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के पास स्पष्ट बहुमत था और सरकार उसकी ही बनी, फिर भी भाजपा के 12 विधायकों का दलबदल करवाकर श्री जोगी उन्हें कांग्रेस में ले आए। इस कवायद की कोई आवश्यकता नहींथी, न ही कांग्रेस को इससे कोई फायदा हुआ, लेकिन फिर भी ऐसा किया गया, तो इसके पीछे शायद वजह यह थी कि उस वक्त जो भी विधायक थे, वे या तो विद्याचरण शुक्ल खेमे के थे या दिग्विजय सिंह खेमे के, जबकि अजीत जोगी अपना नेतृत्व चुनौती शून्य व मजबूत करना चाहते थे। उस वक्त से लेकर आज तक कांग्रेस की स्थिति लगातार गिरती गई और अब हाल यह है कि चुनाव में जीत, जनाधार मजबूत करना, भावी रणनीति तैयार करना इन सबसे अधिक चिंतन गुटबाजी पर किया जाने लगा है। कांग्रेस कभी छत्तीसगढ़ में सुदृढ़, सशक्त थी। मोतीलाल वोरा, अजीत जोगी, स्व. विद्याचरण शुक्ल जैसे नेता इस प्रदेश से आए, जो कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर बड़े-बड़े पदों पर विराजे। इसके बावजूद कांग्रेस को लगातार चुनावों में एक के बाद एक हार का सामना करना पड़ रहा है और अंतर्कलहयह है कि थमने का नाम ही नहींले रही है। सभी बड़े नेता अकेले बड़े बने रहना चाहते हैं, सबको साथ लेकर चलने की भावना खत्म हो रही है। इसी वजह से हर बार ऐसा लगता है कि चुनावों में जीत हासिल होगी और हर बार कांग्रेस के खाते हार ही आती है। अभी टी.एस.सिंहदेव व भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस काफी आक्रामक होकर कार्य कर रही है और भाजपा के सामने रोज नई चुनौती पेश कर रही है। श्री सिंहदेव की स्वच्छ, निर्विवाद छवि व श्री बघेल की युवा तेजतर्रार छवि के चलते कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ा है, लेकिन इसे बनाए रखने के लिए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में सीटें जीतना भी जरूरी है। प्रदेश में कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व निर्बाध कार्य कर सके, इसलिए नई कार्यकारिणी का गठन भी उनकी मर्जी से हुआ। लेकिन ऐसा लग रहा है कि कहींन कहींइन्हें कमजोर करने की कोशिश भी की जा रही है। मंतूराम पवार की नाम वापसी ऐसी ही एक कोशिश लगती है। श्री पवार अजीत जोगी के करीबी माने जाते हैं, लेकिन उन्हें प्रत्याशी बनाने की पहल भूपेश बघेल की थी। शायद श्री बघेल इसके जरिए सबको करीब लाना चाहते हों। लेकिन मंतूराम पवार नाम वापस ले लेंगे, इसकी कल्पना उन्हें नहींरही होगी। स्वयं श्री जोगी ने इस घटना की आलोचना की है। इस घटना के पीछे जिम्मेदार चाहे जो लोग होंंऔर कांग्रेस के इस नुकसान को भूपेश बघेल का नुकसान मान कर जो भी खुश हो रहे हों, हाईकमान को सतर्क होकर इस खेल का खात्मा करना चाहिए। अगर कांग्रेस की गुटबाजी खत्म नहींकी गई या गुटबाजों के खिलाफ कड़ा कदम नहींउठाया गया तो पार्टी के भविष्य पर गंभीर प्रश्न खड़े हो जाएंगे।

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