• उपचुनावों के नतीजे

    जो लोग यह कहते थे कि लोकसभा चुनावों में मोदी लहर चली थी, वे बिलकुल सौ फीसदी सही कह रहे थे। पुरानी कहावत है टाइम एंड टाइड वेट फार नन, अर्थात समय और लहरें किसी का इंतजार नहींकरतीं। जिस तरह समय बीत जाता है, वैसे ही लहरें भी किनारे तक आकर लौट जाती हैं, चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हों। ...

    जो लोग यह कहते थे कि लोकसभा चुनावों में मोदी लहर चली थी, वे बिलकुल सौ फीसदी सही कह रहे थे। पुरानी कहावत है टाइम एंड टाइड वेट फार नन, अर्थात समय और लहरें किसी का इंतजार नहींकरतीं। जिस तरह समय बीत जाता है, वैसे ही लहरें भी किनारे तक आकर लौट जाती हैं, चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हों। बिहार, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और पंजाब में विधानसभा उपचुनावों के नतीजे बतला रहे हैं कि मोदी लहर आकर चली गई है। पंजाब की दो सीटों में से एक-एक कांग्रेस और अकाली दल के खाते में गई हैं। मध्यप्रदेश में भाजपा 2 सीट पर जीत गई है, जबकि एक सीट कांग्रेस को मिली है। कर्नाटक की 3 सीटों में से दो पर कांग्रेस की जीत हुई और भाजपा को एक सीट मिली। पंजाब में कांग्रेस का जीतना महत्वपूर्ण है क्योंकि आम चुनावों में यहां उसे निराशा हाथ लगी थी। आश्चर्य की बात यह है कि लोकसभा चुनावों में पंजाब से 4 सीटेंंजीतने वाली आम आदमी पार्टी के दोनों उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार भाजपा की सरकार बनी और मोदी फैक्टर से अधिक यहां शिवराज फैक्टर काम करता है, इसलिए भाजपा की जीत बहुत आश्चर्यजनक नहींहै। कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है, इस लिहाज से 2 सीटों पर उसकी जीत कोई खास उपलब्धि नहीं मानी जा सकती, लेकिन बेल्लारी सीट को कांग्रेस ने अपने नाम कर लिया है, यह निश्चित ही बड़ी सफलता है। इन राज्यों में किसी बड़े राजनीतिक उलट-फेर की संभावना नहींथी, क्योंकि दो-तीन सीटों का चुनाव कोई बड़ा बदलाव नहींला सकता, न ही इन राज्यों में किसी किस्म का नया गठबंधन ही हुआ। लेकिन बिहार के नतीजों पर सबकी नजरें थीं। इसका सबसे बड़ा कारण था नीतीश-लालू का महागठबंधन। आम चुनावों के परिणामों में मिली भारी शिकस्त ने इन दो धुर विरोधियों को पास आने का अवसर उपलब्ध कराया और जमीनी राजनीति के इन धुरंधरों ने इस मौके को हाथ से नहींजाने दिया। भाजपा से अलग होने के बाद जदयू के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बिहार में अपनी सत्ता बनाए रखने और जनाधार बढ़ाने की थी। नीतीश कुमार ने आम चुनावों के बाद इस्तीफा देकर जीतन मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया। भाजपा की नजरों में यह सब राजनीतिक प्रहसन से अधिक कुछ नहींथा। भाजपा यह मानकर चल रही थी कि आम चुनावों की तरह ये उपचुनाव बड़ी आसानी से उसकी झोली में 10 सीटें डाल देंगे। लेकिन पिछले दिनों राजद और जदयू का महागठबंधन हुआ। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने एक साथ मिलकर भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोला और बिहार की जनता ने उनके इस प्रयास में साथ दिया। बिहार की 10 सीटों में से भाजपा के खाते मात्र चार सीटें आई हैं। जदयू को दो, राजद को तीन और कांग्रेस को 1 सीट मिली है। उपचुनावों के पहले इन 10 सीटों में से 6 पर भाजपा का कब्जा था। अर्थात उसे 2 का नुकसान ही हुआ। बिहार के नतीजों के बाद भाजपा प्रवक्ताओं को समझ ही नहींआ रहा कि वे किन शब्दों में इसकी व्याख्या करें। कभी वे नतीजों को आश्चर्यजनक बताते हैं, कभी कहते हैं कि ये उपचुनाव थे, इसलिए इनके नतीजों पर खास विश्लेषण की आवश्यकता नहीं, कभी कहते हैं कि ये चुनाव मोदीजी के नाम पर नहींलड़े गए, इसलिए उनका प्रभाव पडऩे या ना पडऩे का सवाल ही नहीं, कभी सारा ठीकरा राज्य के नेतृत्व पर फोड़ देते हैं और कभी लालू-नीतीश के गठबंधन को मूल्यों की तिलांजलि और अवसरवाद ठहराते हैं। ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि रामविलास पासवान ने इसी अवसरवाद से मोदीनाम का सहारा लिया। आम चुनावों की जीत से अतिउत्साह में जी रहे भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए ये नतीजे निराशाजनक साबित हुए, उन्हें मोदी लहर में एक बार फिर सराबोर होने का अवसर नहींमिला। जदयू-राजद के गठबंधन ने राजनीति में नयी संभावनाओं और समीकरणों के दरवाजे खोले हैं।

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