• गैस पीड़ित 29 साल से लड़ रहे हक की लड़ाई (3 दिसंबर : भोपाल गैस त्रासदी की बरसी)

    वर्तमान दौर में समाज में गरीब होना शायद सबसे बड़ा अपराध बन गया है, यही वजह है कि न तो कोई गरीबों का साथ देने तैयार होता है और न ही उनके हक की लड़ाई लड़ने को ताकतवर लोग आगे आते हैं। इसका प्रमाण भोपाल गैस हादसे के पीड़ित हैं जिन्हें 29 वर्ष बाद भी वह हासिल नहीं हो सका है जो उनका वाजिब हक है। ...

    भोपाल | वर्तमान दौर में समाज में गरीब होना शायद सबसे बड़ा अपराध बन गया है, यही वजह है कि न तो कोई गरीबों का साथ देने तैयार होता है और न ही उनके हक की लड़ाई लड़ने को ताकतवर लोग आगे आते हैं। इसका प्रमाण भोपाल गैस हादसे के पीड़ित हैं जिन्हें 29 वर्ष बाद भी वह हासिल नहीं हो सका है जो उनका वाजिब हक है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के लोगों के लिए दो-तीन दिसंबर 1984 की रात को यूनियन कार्बाइड संयंत्र से रिसी जहरीली गैस काल बनकर आई थी। इस रात जहरीली गैस ने तीन हजार से ज्यादा लोगों को मौत की नींद सुला दिया था और लाखों लोग बीमारियों का शिकार बने। गुजरे वर्षो में मरने वालों का आंकड़ा पांच गुना हो गया है। इस हादसे में जो बचे, वे आज जिंदा लाश बनकर जिए जा रहे हैं। हादसे के समय सुदामा नगर में रहने वाले अब्दुल अजीज को देखकर ही गैस पीड़ितों की हालत का अंदाजा लग जाता है। अजीज का हाल यह है कि वह एक वाक्य भी पूरा नहीं कर पाते, तेज सांसों में उनका स्वर दब जाता है। वे बताते हैं कि हादसे के बाद गैस के असर के चलते वे अपनी पत्नी व तीन बेटियों को गंवा चुके हैं। उनका कहना है कि दवा के लिए उनके पास पैसा नहीं है और दो वक्त के भोजन के लिए भी दूसरों की ओर ताकना पड़ता है। सांस की बीमारी के चलते वे कोई श्रम का कार्य कर नहीं सकते। वहीं, सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली है। वे किसी तरह अन्य लोगों की मदद से अपना जीवन चला रहे हैं। इससे बेहतर था कि वे भी मर जाते और इस समस्याग्रस्त जिंदगी से उन्हें मुक्ति मिल जाती। गैस हादसे की चर्चा होते ही उजमा बी की आंखें भर आती हैं। वे बताती हैं कि जब वे महज चार माह की थीं, तब गैस रिसी थी। उसका असर आज भी उनके जीवन पर हावी है। आंखों में तकलीफ है। पति को सांस की बीमारी है, वे कोई काम नहीं कर सकतीं। उनके तीन बच्चे हैं, वे भी बीमार रहते हैं। बड़े बेटे को हर समय बुखार व जुकाम रहता है। भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार का आरोप है कि पीड़ित गरीब वर्ग से वास्ता रखते हैं, लिहाजा केंद्र और राज्य सरकार उनके पक्ष में खड़े होने को तैयार नहीं है। यही कारण है कि पीड़ितों को मुआवजे में 50 हजार रुपये ही मिल सके। यह राशि इतनी कम है कि इससे वे दवा भी नहीं खरीद सकते, जबकि उन्हें रोजाना दवा की जरूरत पड़ती है। अब्दुल जब्बार कहते हैं कि सरकारों की दिलचस्पी विदेशी निवेश में ज्यादा है और वे नहीं चाहतीं कि यूनियन कार्बाइड हादसे के दोषियों को सजा मिले। सरकारों को आशंका है कि यूनियन कार्बाइड के दोषियों को सजा मिलने पर विदेशी निवेश रुक सकता है, यही कारण है कि सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यह संदेश देना चाहती है कि यहां उनके द्वारा कितना भी बड़ा अपराध या हादसा हो जाए, उन्हें सजा नहीं मिलेगी।सरकारों की नीयत पर सवाल उठाते हुए जब्बार कहते हैं कि पहले मौतों का आंकड़ा कम कर पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए यूनियन कार्बाइड से पर्याप्त राशि नहीं ली गई, फिर उपचार का इंतजाम नहीं हुआ। इतना ही नहीं, यूनियन कार्बाइड कार्पोरशन के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन को केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा वर्ष 1992 में वारंट जारी किए जाने के बाद भी उन्हें न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया जा सका। यूनियन कार्बाइड परिसर के आसपास की बस्तियों में रहने वालों के कई परिजन आज भी तिल-तिल कर मर रहे हैं, मगर किसी भी राजनीतिक दल ने उनके हित की आवाज उठाना मुनासिब नहीं समझा। पीड़ित कहते हैं कि वे गरीब हैं, इसलिए कोई उनकी लड़ाई लड़ने में दिलचस्पी नहीं ले रहा है। अगर बात किसी बड़े घराने की होती तो सरकारें उनके साथ खड़ी हो जातीं।


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