• किसका खेल बनाएंगे-बिगाड़ेंगे ये राजनीतिक दल

    बिहार विधानसभा के चुनाव में अगर कभी जनता परिवार का घटक अथवा सहयोगी रहे राजनीतिक दल अथवा नेता अगर नीतीश कुमार के जनता दल (यू) और लालू प्रसाद यादव के राजद और कांग्रेस को मिलाकर बने महागठबंधन के लिए वोट कटवा की भूमिका में दिख रहा है तो केंद्र और महाराष्ट्र की सरकार में साझा भूमिका निभा रही...

     देशबन्धु के लिए पटना से  जयशंकर गुप्त विधानसभा चुनाव में किसकी ओर झुकेगा जीत का पलड़ा बिहार विधानसभा के चुनाव में अगर कभी जनता परिवार का घटक अथवा सहयोगी रहे राजनीतिक दल अथवा नेता अगर नीतीश कुमार के जनता दल (यू) और लालू प्रसाद यादव के राजद और कांग्रेस को मिलाकर बने महागठबंधन के लिए वोट कटवा की भूमिका में दिख रहा है तो केंद्र और महाराष्ट्र की सरकार में साझा भूमिका निभा रही राजग की सबसे पुरानी घटक शिवसेना ने भी बिहार विधानसभा के चुनाव में किस्मत आजमाने की घोषणा करके भाजपा और इसके नेतृत्ववाले राजग के नेताओं की नींद में खलल डालने की कोशिश की है।  राज्यभा में शिवसेना के नेता संजय राउत ने बिहार के चुनावी अखाड़े में 150 से अधिक उम्मीदवार उतारने की घोषणा की है। हालांकि बिहार में सेना का कभी कोई जनाधार नहीं रहा है, शिव सेना की कवायद केंद्र और महाराष्ट्र की साझा सरकार में भी इसकी उपेक्षा कर रही और मुंबई में सेना के राजनीतिक वर्चस्ववाली बृहन्मुंबई महानगर पालिका के चुनाव में इसके लिए मुसीबतें खड़ी करने के उपक्रम में जुटी भाजपा पर राजनीतिक दबाव बनाने की लगती है। सेना के करीबी सूत्रों के अनुसार केंद्र में और महाराष्ट्र में भी भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी और सदस्य संख्या के हिसाब से लोकसभा में भाजपा के बाद राजग का सबसे बड़ा घटक होने के बावजूद केंद्र सरकार में सबसे कम और महत्वहीन प्रतिनिधित्व सेना को ही मिला है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए मत्रीमंडल के विस्तार का मामला लगातार टलते ही जा रहा है। सूत्रों के अनुसार बिहार में पार्टी के उम्मीदवार भाजपा के स्वर्ण और हिंदुत्ववाले जनाधार में सेंध लगाकर इसका सिरदर्द बढ़ा सकते हैं।  नेताजी के नाम से मशहूर मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के बिहार के चुनावी मैदान में उतरने और पांच अन्य छोटे और चुनाव से पहले अस्तित्वहीन से दिखनेवाले दलों के साथ समाजवादी धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने के बाद उत्तर प्रदेश में उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी मायावती भला क्यों पीछे रहनेवाली. उनकी बसपा ने भी बिहार विधानसभा के चुनाव में सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा की है। समूचे बिहार में तो बसपा की मजबूत उपस्थिति कभी भी महसूस नहीं की गई, हालांकि पिछले कुछ चुनावों में उत्तर प्रदेश की सीमा से लगनेवाले पश्चिमी बिहार के कुछ जिलों में मायावती के सजातीय रविदास (चमार) लोगों के बीच उनकी पार्टी का असर जरूर महसूस किया गया। बसपा के दो-चार विधायक चुने भी जाते रहे लेकिन उनमें से अधिकतर या कहें सभी चुनाव के बाद बननेवाले सत्ता समीकरण के साथ ही होते रहे। एक समय बिहार के कुछ इलाकों में अच्छे खासे जनाधारवाले वाम दलों ने भी इस चुनाव में वाम मोर्चा के बैनर तले सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा की है। इस मोर्चा में भाकपा, भाकपा (माले-लिबरेशन), माकपा, फारवर्ड ब्लॉक और आरएसपी भी शामिल है। भाकपा का कभी बिहार में बड़ा प्रभावक्षेत्र रहा है. इसके कई सांसद और विधायक भी चुने जाते रहे हैं लेकिन हिंदी पट्टी के राज्यों में इस या उस राजनीतिक दल की बैसाखी के सहारे चलने के आदी हो जाने के कारण इसका जनाधार छीजते गया है।  भाकपा (माले-लिबरेशन) का अब भी कुछ जिलों में अच्छा खासा जनाधार है। बिहार में नीतीश कुमार-लालू प्रसाद और कांग्रेस के महागठबंधन और भाजपा गठबंधन (राजग) के बीच राजनीतिक ध्रुवीकरण की स्थिति में संभव है कि इस चुनाव में वाम दलों को अपेक्षित सफलता न मिल सके, उनकी अपने बूते फिर से खड़ा होने की कोशिश के आगे चलकर असरदार साबित हाने के कयास जरूर लग रहे हैं। कहने को पूरे दमदखम के साथ चुनाव मैदान में उतर रहे समाजवादी धर्मनिरपेक्ष मोर्चा ने एनसीपी के महासचिव एवं बिहार में कटिहार से लोकसभा सदस्य तारिक अनवर को अपना चुनावी चेहरा या कहें, मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया है। हालांकि पिछली विधानसभाओं में एनसीपी अथवा इस मोर्चा में शामिल किसी अन्य घटक ने कभी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज नहीं कराई। समाजवादी पार्टी बिहार में 1995 से ही विधानसभा के तकरीबन सभी चुनावों में औसतन डेढ़ सौ सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करते रही है लेकिन किसी भी चुनाव में इसे दो-ढाई फीसदी से अधिक मत हासिल नहीं हो सके। पिछले यानी 2010 के विधानसभा चुनाव में इसके 146 उम्मीदवार मैदान में थे लेकिन एक भी जीत नहीं सका। पूरे बिहार में सपा को महज 0.55 फीसदी मत ही हासिल हो सके थे। इस बार समाजवादी पार्टी ने 85, राजद से बगावत करनेवाले मधेपुरा के सांसद राजेशरंजन उर्फ पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी-जाप- ने 64, एनसीपी ने 40, पूर्व सांसद नागमणि की समरस समाज पार्टी ने 28, पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र प्रसाद यादव के समाजवादी जनता दल ने 23 और लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष पूर्नो ए संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी ने तीन सीटों पर चुनाव लडऩे का आपसी समझौता किया है। इस मोर्चा और इसके घटक दलों, खासतौर से सपा, जाप और एनसीपी की उम्मीदें महागठबंधन और राजग में टिकट से वंचित विधायकों, पूर्व विधायकों और प्रभावशाली नेताओं पर है।  लेकिन इस सबके बावजूद इस तथाकथित तीसरे मोर्चे के साथ लग गया 'वोट कटवाÓ का ठप्पा है कि मिटने का नाम ही नहीं ले रहा है। राजद में उत्तराधिकार के संघर्ष में मात खाकर बगावत करनेवाले सांसद पप्पू यादव अंतिम समय तक भाजपा गठबंधन के साथ किसी तरह का चुनावी समीकरण बिठाने की जुगत में थे। केंद्र सरकार ने पप्पू यादव को जेड श्रेणी की सुरक्षा प्रदान कर उनके साथ करीबी का संकेत भी दिया था लेकिन उनकी अपराधी छवि को देखते हुए भाजपा उनके साथ चुनावी गठबंधन का जोखिम मोल लेने को तैयार नहीं हुई। पप्पू यादव के करीबी सूत्रों के अनुसार उनकी निगाह इस नहीं, बल्कि विधानसभा के अगले चुनाव को लेकर है। उन्हें लगता है कि एक बार उनके दमखम दिखाने और लालू प्रसाद को राजनीतिक शिकस्त मिल जाने के बाद बिहार के यादव बड़े पैमाने पर उन्हें अपना नेता मान लेंगे।


अपनी राय दें