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विशेष संपादकीय : छत्तीसगढ़ में यह भी होना था!!

छत्तीसगढ़ पुलिस की भूमिका समझ में नहीं आ रही है। ये प्रकाश बजाज कौन हैं? छत्तीसगढ़ में ऐसे अखबार मालिक और पत्रकारों की कमी नहीं है जो पत्रकारिता का इस्तेमाल व्यापार के लिए कर रहे हैं।

विशेष संपादकीय : छत्तीसगढ़ में यह भी होना था!!
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ललित सुरजन

छत्तीसगढ़ के नए सीडी कांड की खबर जिस दिन आई तब से मन उद्विग्न और विक्षुब्ध है। मेरी तरह और भी बहुत से लोगों के मन में ऐसा ही विक्षोभ होगा। मैंने वह दौर देखा है जब राजनीति में शिष्टता और शालीनता अनिवार्य गुण माने जाते थे। समय बदला, स्थितियां बदलीं, गुणों में गिरावट आई, यह भी देखा। किन्तु आज जो स्थिति बन गई है इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। दूसरी तरफ पत्रकारिता के बेहतरीन दिनों का भी मैं साक्षी रहा हूं। अधिकतर लोग पत्रकारिता के पेशे में इसलिए आते थे कि वे अपनी कलम के माध्यम से एक बेहतर समाज की रचना में भागीदार बनना चाहते थे। सत्यनिष्ठा और संघर्षशीलता पत्रकारिता के अनिवार्य गुण होते थे। इस अंग में समय के साथ जो गिरावट आई उसे भी लगातार देख रहा हूं, लेकिन फिर यह भी कल्पना से परे था कि पत्रकारिता कहां से कहां पहुंच जाएगी।

मैं छत्तीसगढ़ के मंत्री राजेश मूणत को पिछले कुछ वर्षों से जानता हूं। उन्होंने काफी तेजी के साथ राजनीति में अपनी पकड़ बनाई है। वे रायपुर नगर के कायाकल्प के लिए जो अनेकानेक प्रकल्प चला रहे हैं उनमें से बहुत से मुझे पसंद नहीं हैं और अखबार के माध्यम से मैं अपनी असहमति दर्ज करा चुका हूं।

श्री मूणत से मेरा विशेष परिचय नहीं है, लेकिन उनके बारे में जितना जाना सुना है उस आधार पर विश्वास नहीं होता कि वे इस कोटि के दुर्बल चरित्र व्यक्ति हैं। दूसरी ओर विनोद वर्मा को मैं शायद तब से जानता हूं जब वे विद्यार्थी थे। देशबन्धु स्कूल में ही उन्होंने पत्रकारिता के पाठ पढ़े। उनके गुणों को देखकर ही उन्हें देशबन्धु के दिल्ली ब्यूरो का प्रमुख बनाकर भेजा जिसका उन्होंने कुशलतापूर्वक निर्वाह किया। अतएव आज मेरे लिए यह विश्वास करना भी कठिन है कि वे भयादोहन जैसे कुकृत्य में लिप्त अथवा सहयोगी हो सकते हैं।

मेरा मानसिक उद्वेग सिर्फ सैद्धांतिक कारणों से नहीं है। इसलिए भी है कि जिन दो व्यक्तियों- एक राजनेता, एक पत्रकार की, जो छवि मेरे मन में थी वह इस कांड के कारण टूटने की नौबत आ रही है। लेकिन हो सकता है कि जो सामने दिख रहा है वह कुछ भी सच न हो और समय आने पर जनता के सामने सारी स्थितियां स्पष्ट हो जाएं। मैं ऐसा सही वक्त आने की प्रतीक्षा करूंगा, इस विश्वास के साथ कि दोनों व्यक्तियों के बारे में मेरी अब तक की जो राय है वह कायम रही आएगी। मेरे मन में विक्षोभ कुछ अन्य कारणों से भी है। एक तो मुझे छत्तीसगढ़ पुलिस की भूमिका समझ में नहीं आ रही है। ये प्रकाश बजाज कौन हैं? इन्होंने किन्हीं अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई और फिर लापता हो गए। इन अज्ञात व्यक्तियों का विनोद वर्मा से क्या संबंध है? विनोद के घर से जो पांच सौ सीडी जब्त होने की बात की गई क्या उसका पंचनामा किया गया? पुलिस को गिरफ्तार करने की इतनी जल्दी थी कि हवाई जहाज से जाकर सुबह साढ़े तीन बजे विनोद वर्मा को नींद से उठाया गया? यह तत्परता रिमांड पर रायपुर लाने में क्यों नहीं दिखाई गई? यह एक अनोखा प्रकरण होगा जहां दिल्ली से रायपुर एक आरोपी को हवाई जहाज या ट्रेन के बजाय सड़क मार्ग से लाया गया।

बहरहाल मैं कानून का जानकार नहीं हूं। एक सामान्य व्यक्ति के मन में जो सवाल उठ सकते हैं वही मेरे दिमाग में भी आ रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि अदालत में ऐसे तमाम प्रश्नों के तार्किक उत्तर प्राप्त होंगे। लेकिन मैं यहां एक अन्य बिन्दु पर कुछ विस्तार के साथ बात करना चाहता हूं कि क्या विनोद वर्मा पत्रकार नहीं हैं या पत्रकार रहते हुए उन्हें किसी राजनैतिक दल के साथ सक्रिय रूप से जुडऩा चाहिए था या नहीं। मेरे अपने विचार में आदर्श स्थिति तो वही है जब पत्रकार पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष हो। देशबन्धु में प्रारंभ में हमारी नीति रही है कि कोई भी सहयोगी किसी राजनैतिक दल का सदस्य नहीं बनेगा और सक्रिय राजनीति अथवा चुनावी राजनीति में भाग नहीं लेगा। मेरे मित्र और सहयोगी राजनांदगांव के बलवीर खनूजा को 1985 में जब कांग्रेस का टिकट मिला तो मैंने उनसे देशबन्धु से त्यागपत्र ले लिया। उसके पूर्व 1977 में जबलपुर संस्करण के संपादक राजेन्द्र अग्रवाल जनता पार्टी टिकट पर केवलारी विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बने तो उनसे भी त्यागपत्र ले लिया गया था

यह पुराने दौर की बात हो गई। देशबन्धु आज भी उसी नीति पर कायम है, लेकिन अन्यत्र स्थितियां बदल चुकी हैं। वैसे तो पहले भी आर.आर. दिवाकर, राधानाथ रथ, हीरालाल शास्त्री जैसे उदाहरण हमारे सामने थे, लेकिन ये तमाम पत्रकार स्वाधीनता संग्राम की उपज थे और इन्होंने उस दौर में राजनीति और पत्रकारिता साथ-साथ की थी जिसका जारी रहना स्वाभाविक था। किन्तु उसके बाद हमने देखा कि कैसे अनेक अखबार मालिक और पत्रकार राजनीति की चाशनी में डूबने के लिए आतुर होने लगे। एम.जे. अकबर, चंदन मित्रा, स्वप्न दासगुप्ता, तरुण विजय, हरिवंश, प्रफुल्ल माहेश्वरी और भी बहुत से नाम इस संदर्भ में ध्यान आते हैं। छत्तीसगढ़ में ऐसे अखबार मालिक और पत्रकारों की कमी नहीं है जो पत्रकारिता का इस्तेमाल व्यापार के लिए कर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार गोविंदलाल वोरा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष रहे। किसी ने नहीं कहा कि वे पत्रकार नहीं हैं। मेरे स्नेही मित्र और पूर्व सहयोगी रमेश नैय्यर कई वर्षों तक छत्तीसगढ़ हिन्दी ग्रंथ अकादमी के पूर्णकालिक वेतनभोगी संचालक रहे, लेकिन मैं उन्हें उस समय भी बुनियादी रूप से एक पत्रकार ही मानता रहा, जो कि वे हैं। ऐसे भी अनेक अन्य पत्रकार हैं जो इस या उस राजनैतिक दल से संबद्ध हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष उसके लिए काम करते हैं। इसलिए आज विनोद वर्मा के पत्रकार होने पर प्रश्नचिह्न लगाया जा रहा है या उनके एक राजनैतिक दल हेतु काम करने पर आपत्ति की जा रही है तो वर्तमान परिस्थिति में इसे अनुचति कैसे माना जाए? लगता है कि मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए इधर-उधर की बातें की जा रही हैं। ऐसे में श्रेयस्कर यह होगा कि सभी संबंधित पक्ष चरित्र हनन की राजनीति से ऊपर उठें और इस अशोभनीय, अवांछित प्रकरण का फैसला आने और पटाक्षेप होने का इंतजार करें।


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