आधुनिकता की दौड़ में गुम हो रही छत्तीसगढ़ी फिल्में
अलग छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की परिकल्पना के आकार लेने के पूर्व ही छत्तीसगढ़़ी भाषा में बनी फिल्में काफी मशहूर हुई थी

नई दिल्ली। अलग छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की परिकल्पना के आकार लेने के पूर्व ही छत्तीसगढ़़ी भाषा में बनी फिल्में काफी मशहूर हुई थी, लेकिन मल्टीप्लेक्स के मौजूदा दौर में इनके दर्शकों की संख्या कम होती जा रही है।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों के शुरुआती दौर में लोकप्रियता का आलम यह था कि हॉलीवुड और बॉलीवुड की तर्ज पर छत्तीसगढ़़ी फिल्मों के लिए छॉलीवुड नाम चल पड़ा था। क्षेत्रीयता के दृष्टिकोण से टॉलीवुड कहे जाने वाले दक्षिण भारत की तेलुगू , तमिल या मलयालम भाषा में बनी फिल्में हो या कॉलीवुड के नाम से प्रचलित पश्चिम बंगाल की बंगलाभाषी फिल्मों की तरह छत्तीसगढ़़ी फिल्में अपने इस दौर को कायम नहीं रख सकीं ।
वर्ष 1964 में पहली छत्तीसगढ़़ी फिल्म ' कहि देबे संदेश' बनी थी । सवर्ण वर्ग की नायिका और अनुसूचित जाति के युवक के प्रेम एवं विवाह के ताने-बाने से बुनी इस फिल्म ने तत्कालीन दौर में काफी लोकप्रियता हासिल की थी, हालांकि इसे समाज के एक धड़े का विरोध भी झेलना पड़ा था । कुछ साल के अंतराल के बाद 1970 में दूसरी छत्तीसगढ़़ी फिल्म 'घरद्वार' रिलीज हुई । पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म भी सफल रही ।
छत्तीसगढ़़ी फिल्मों के इतिहास में सर्वाधिक सफल फिल्म लेखक , निर्देशक सतीश जैन की 'मोर छंईहा भूंईया' रही । इस फिल्म ने बॉलीवुड के राजश्री प्रोडक्शन द्वारा ग्रामीण परिवेश पर बनी फिल्म 'नदिया के पार' का रिकॉर्ड तोड़ते हुए बिलासपुर सहित कई शहरों में सिल्वर जुबली मनाई । छत्तीसगढ़ सरकार ने इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार से नवाजा । एक नवंबर 2000 को अलग राज्य बनने के बाद क्षेत्रीय फिल्म निर्माताओं में छत्तीसगढ़़ी फिल्मों की पृथक पहचान स्थापित करने की प्रेरणा बलवती हुई । उस समय 'मोर छंईहा भूंईया' फिल्म की सफलता का नशा यहां के फिल्म निर्माताओं और कलाकारों पर छाया हुआ था। फिल्मकार प्रेम चंद्राकर ने छत्तीसगढ़़ी फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता अनुज शर्मा और उड़िया फिल्म अभिनेत्री प्रीति मिश्रा को लेकर 'मया देदे मया लेले' बनाई । फिल्म की शूटिंग पुरी के मनोरम समुद्र तट और छत्तीसगढ़ में भिलाई एवं गरियाबंद जैसे स्थानों पर की गयी। हिन्दी फिल्मों की प्रेम कहानियों की कथावस्तु पर आधारित यह फिल्म अपने गीत-संगीत , हास्य एवं खूबसूरत लोकेशन की बदौलत दर्शकों की भीड़ खींचने में कामयाब रही। फिल्म को सर्वश्रेष्ठ नायिका एवं सर्वश्रेष्ठ हास्य के लिए छत्तीसगढ़ सरकार से अवार्ड भी मिला ।
'मोर छंईहा भूंईया' और 'मया देदे मया लेले' की सफलता को देखकर छत्तीसगढ़़ी फिल्में बनाने की होड़ शुरू हो गयी । एक एक करके प्रीत की जंग, तुलसी चौरा, मयारू भौजी, जय महामाया, तोर मया के मारे , लेड़गा नंबर वन, मोर धरती मैय्या और परदेसी के मया जैसी कई फिल्में आईं। इनमें से एकाध फिल्में ही कुछ स्थानों पर एक माह बमुश्किल चल पाई । कई तो इससे भी कम समय मेें पर्दे से उतर गईं।


